स्मृति शेष : खामोश बदलाव की नायिका
श्रीदेवी महज 54 साल की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह गई. इस 54 में से 51 साल उन्होंने फिल्मों को दिया. फिल्में सिर्फ उनका कॅरियर नहीं थीं, बल्कि अपने इस कॅरियर को उन्होंने सामाजिक जीवन में बदलाव लाने का हथियार भी बनाया था.
स्मृति शेष : खामोश बदलाव की नायिका |
वह अपने हर किरदार से एक नया मानक गढ़ देती थीं. ऐसा नहीं माना जा सकता कि यह सब अनजाने में हो रहा था. चूंकि अभिनय की कला जीवन को देखने के संवेदनशील नजरिये से पैदा होती है. लिहाजा इसे मानने से परहेज नहीं किया जाना चाहिए कि उनकी फिल्मों के डायलॉग, किरदार और अभिनय सब कुछ सायास रहा होगा, क्योंकि उनकी फिल्मों में ये तीनों मिलकर सामाजिक संवेदनशीलता के तार को बार-बार छेड़ देते थे.
तमिल-तेलुगू और हिन्दी की कुल 300 फिल्मों में अपने अभिनय का जादू बिखेरने वाली श्रीदेवी ने महज चार साल की उम्र में अपने रूपहले परदे के सफर की शुरु आत कर दी थी. उस तमिल फिल्म में उनके किरदार का नाम भी श्रीदेवी ही था. दिलचस्प है कि वह रोल किसी लड़की का नहीं, बल्कि लड़के का था. लगभग उसी उम्र के आस-पास उन्होंने हिन्दी फिल्म में भी कदम रखा था.
1975 में रिलीज होकर हिन्दी सिनेमा के दर्शकों के बीच धूम मचा देने वाली फिल्म ‘जूली’ में लीड रोल जूली के बचपन का किरदार निभाया था. ‘जूली’ बिन ब्याही मां का सामाजिक क़ायदे-क़ानून से टकराने की कहानी थी. कमल हासन के साथ फिल्म ‘सदमा’ में उन्होंने बीस साल की उम्र वाली एक ऐसी लड़की का रोल निभाया था, जिसे अपनी बीती हुई जिंदगी याद नहीं है. उस बिसरे हुए मनोविज्ञान के साथ सात साल की मासूम लड़की-सा व्यवहार करने लगती है. मगर, अपने साथी कलाकार कमल हासन की कोशिशों से जैसे ही उसकी याददाश्त वापस होती है, वह उसके साथ बितायी गयी जिंदगी को भूल बैठती है. साथ बिताए पलों को याद दिलाने के लिए तरह-तरह की हरकतें करते कमल हसन अपना मानसिक संतुलन खो बैठते हैं और 20 साल की वह लड़की ट्रेन की सीटी के साथ उसे छोड़कर आगे बढ़ जाती है. यह दृश्य हिन्दी फिल्म के इतिहास में दशर्कों को झकझोर देने वाले दृश्यों में से एक है. फिल्मों के जरिये दर्शकों को अपने अभिनय, कहानियों और संवादों से झकझोरने का काम श्रीदेवी हमेशा ही करती रहीं. इस लिहाज से 1991 में रिलीज हुई उनकी फिल्म ‘लम्हे’ को याद किया जा सकता है. ‘लम्हे’ की पूजा भी ‘जूली’ की नायिका की ही तरह लीक को तोड़ती है. वह अपने से दोगुने उम्र के शख्स से प्यार करने की हिम्मत दिखाती है. ‘लम्हे’ की पूजा का किरदार सामाजिक नियम-बंधनों से टकराता था. सैद्धांतिक आदर्शवाद से लबरेज मिश्रित अर्थव्यवस्था के दर्शकों को व्यावहारिक वास्तविकता रास नहीं आई. यही कारण है कि फिल्म ‘लम्हे’ बॉक्स ऑफिस पर हिट नहीं हो पाई, लेकिन उस फिल्म के लिए श्रीदेवी को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फिल्मफेयर अवार्ड मिला.
‘लम्हे’ से ठीक दो साल पहले यानी 1989 में आई फिल्म ‘चांदनी’ का उनका किरदार भी इस मायने में जुदा था कि वो पारंपरिक भारतीय लड़िकयों की छवि को तोड़ता था. इस फिल्म में चांदनी अपने मंगेतर से ठुकरा दी जाती है, लेकिन वह दुखी होने के बावजूद अपनी जिंदगी को बार-बार जी लेने पर कहीं ज्यादा भरोसा करती है. श्रीदेवी की अभिनय कला में ड्रामा, डांस कॉमेडी और एक्शन सब कुछ एक साथ मौजूद था. उनकी नृत्य कला उनके अभिनय कला को अलग मकाम बख्शती थी. ‘मिस्टर इंडिया’ में उन्होंने जो कॉमेडी की थी और टाइमिंग का जो परफेक्शन था, दोनों ही कॉमेडी किंग्स को भी दांतो तले ऊंगली दबा लेने की लिए विवश कर दिया था. उनकी आवाज और डायलॉग डिलीवरी को लेकर सवाल उठाए जाते रहे, मगर उनकी यह कमजोरी ड्रामा, डांस, कॉमेडी और एक्शन के उबलते दमदार कॉकटेल में उतरकर उठते सवाल के दायरे से भाप बनकर उड़ जाया करती थी.
श्रीदेवी का एक्टिंग रेंज ‘सदमा’ से लेकर ‘नगीना’ जैसी फिल्मों के बीच तक फैला हुआ था. स्त्री होने की स्वाभाविकता के साथ श्रीदेवी रजत पटल पर अपनी सुंदरता से सिल्वर स्क्रीन को गोल्डन स्क्रीन में बदल देती थीं. फिल्मों की कामयाबी की गारंटी को नायकों की परिधि से नायिका की परिधि में खींच लेने वाली श्रीदेवी अब इस जगत को छोड़ चुकी हैं, लेकिन फिल्म इतिहास उनकी कामयाबी से हिन्दी सिनेमा को मिलने पहली महिला सुपर स्टार की स्मृतियों को हमेशा ही संजोकर रखेगा.
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