नजरिया : पूंजी के साथ भरोसा भी डूबा

Last Updated 18 Feb 2018 03:02:32 AM IST

पीएनबी घोटाले ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है. 11,300 करोड़ के शुरुआती अनुमान वाला यह फर्जीवाड़ा और भी बड़ा हो सकता है.


अभी कई पेच खुलने बाकी हैं. इस घोटाले ने एक तरफ सरकारी बैंकों पर जनता का विश्वास हिला दिया है, तो दूसरी तरफ निवेश के लिए विदेशों में साख मजबूत करने में जुटी भारत सरकार के प्रयासों को भी झटका लगा है. हैरत की बात है कि एक तरफ मोदी सरकार एनपीए से डूबते बैंकों को पुनर्जीवित करने के उद्देश्य से धन मुहैया कराने के लिए जूझ रही है, तो दूसरी तरफ बैंकों की कोताही पूरी अर्थव्यवस्था को डुबोने में जुटी है. सियासी हलकों में भले ही इस घोटाले की गूंज के साथ आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो गया हो, पर इतना तो तय है कि देश में अब तक सामने आए इस सबसे बड़े घोटाले की मार आम जनता के सिर पर ही पड़ेगी.
सोचने की बात है कि जो बैंकिंग व्यवस्था एक बड़े नेटवर्क से जुड़ी है, जिसमें नीचे से ऊपर तक जगह-जगह ‘चेक’ लगे हों, जो बैंक प्रबंधन से लेकर वित्त मंत्रालय तक गहरी नजरों से गुजरती हो, मासिक, त्रैमासिक और वार्षिक पड़तालें जिसका पोस्टमॉर्टम करती हों, वहां आठ वर्षो से जारी इतने बड़े घोटाले पर किसी जिम्मेदार की निगाह क्यों नहीं पड़ी? किस तरह फर्जी दस्तावेजों के आधार पर कोई देशी बैंक विदेश स्थित किसी बैंक को रकम उपलब्ध कराने के लिए आंख बंद करके ‘लेटर ऑफ अंडरस्टैंडिंग’ जारी कर सकता है? वह भी तब, जब विजय माल्या को लेकर बैंक निशाने पर हैं और सारी बड़ी वित्तीय एजेंसियां बैंकिंग तंत्र को खंगाल रही हैं.

आरटीआई से मिली जानकारी के अनुसार, 31 मार्च 2017 तक बीते पांच वर्षो में बैंकों में ‘लोन फ्रॉड’ के 8,670 मामले सामने आए हैं, जिनमें विभिन्न बैंकों को 61,260 करोड़ रु पये की चपत लगी है.  क्या पूरे वित्तीय तंत्र में ही सूराख है, जिसमें आसानी से सेंध लगाई जा सकती है? केतन पारेख, विजय माल्या और नीरव मोदी बड़े इन्फ्रास्ट्रक्चर वाली आधुनिक प्रणालियों से लैस इन बैंकों की आंखों में कैसे धूल झोंक देते हैं? क्या बैंकों के नियंत्रण का निगरानी तंत्र इतना लचर है? कैसे ये घोटालेबाज बैंकों, वित्तीय एजेंसियों और सरकारी तंत्र को ठेंगा दिखा कर फरार हो जाते हैं? देश की अर्थव्यवस्था को घुन की तरह चाटने और आम भारतीय पर टैक्स का बोझ बढ़ाने वाले इन घोटालों की जवाबदेही आखिर किस पर है?
माल्या कानूनी दांव-पेच और ढीले तंत्र के चलते खुलेआम ठेंगा दिखा रहा है, तो पीएनबी घोटाले के आरोपित नीरव मोदी पर शिकंजे को लेकर शुरुआती ढील भी उजागर हो चुकी है. घोटाले की सूचना और किसी ठोस कार्रवाई के बीच लगभग दो पखवाड़े के अंतराल को लेकर न सिर्फ  बैंक और दूसरी वित्तीय एजेंसियां, बल्कि सरकार भी कठघरे में है. ऐसे में, नीरव मोदी पर कैसे और कब नकेल कसी जा सकेगी, इस पर फिलहाल अटकलें ही लगाई जा सकती हैं. आंकड़े बताते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ समझे जाने वाले सार्वजनिक क्षेत्र के इन बैंकों ने 2004 से 2014 के बीच करीब 63 लाख करोड़ रुपये का कर्ज बांट दिया. विदेशों में इस कर्ज का मूल्य करीब 690 बिलियन यूएस डॉलर बैठता है. दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्था वाले चुनिंदा 18 देशों को छोड़ दें, तो यह रकम विश्व के किसी भी देश की समूची अर्थव्यवस्था से ज्यादा है.
हास्यास्पद बात यह है कि कर्ज अदा न होने पर, फिर यही बैंक अपने कर्ज को कर्जदार के साथ औने-पौने में ‘सेट्ल’ कर देते हैं और बैंक खोखले होते जाते हैं. मोनेट इस्पात एंड एनर्जी लिमिटेड, इलेक्ट्रोस्टील स्टील, आलोक इंडस्ट्रीज, एमटेक ऑटो, ज्योति स्ट्रक्चर कुछ ऐसे ही उदाहरण हैं, जिनके ‘लोन सेट्लमेंट’ से बैंकों को 57 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का नुकसान हुआ है. कुछ कंपनियां तो घोटाले करने के लिए ही अस्तित्व में आती हैं और फिर गायब हो जाती हैं. मध्यम आकार की कंपनियों के ‘सेट्लमेंट’ का लेखा-जोखा ही लाखों करोड़ में बैठता है.
 सरकारी अर्थव्यवस्था को चूना लगाने वाले कर्जदारों में अमूमन बड़े उद्योगपति शामिल होते हैं, जिन पर बैंकों की खास मेहरबानी रहती है. वरना, आम उपभोक्ताओं को औपचारिकताओं और गारंटी के इतने पापड़ बेलने पड़ते हैं कि वे कर्ज की बात ही भूल जाते हैं या फिर छोटे-मोटे कर्ज मिल जाने के बाद बैंकों की डराऊ नोटिसों के बाद आत्महत्या कर लेते हैं.भारतीय पूंजी का करीब पचहत्तर प्रतिशत उन बड़े घरानों के पास है, जो देश की आबादी का महज एक प्रतिशत है. तो क्या बैंकों के लाखों करोड़ की रेवड़ी इन्हीं बड़ों को बांटी जाती है? जबकि बाकी 99 प्रतिशत लोग वित्तीय मदद की गैरमौजूदगी में दाल रोटी के लिए भी जूझते नजर आते हैं. घोटाला उजागर होने के बाद शेयर मार्केट में छोटे निवेशकों के दस हजार करोड़ रुपये डूब जाने का अनुमान है.
यह घोटाला ठीक उस समय सामने आया है जब केंद्र सरकार बुरे कर्ज यानी एनपीए में डूबे अपने बैंकों को उबारने के लिए धन उपलब्ध कराने के प्रयासों में जुटी है. मोदी सरकार ने हाल में बैंकों के पुनरु द्धार के लिए 88 हजार करोड़ रु पये मुहैया कराए हैं. सरकार की योजना है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बिखरते बैंकों को दो लाख करोड़ की पूंजी से फिर खड़ा किया जा सके. क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए बैंकों को मजबूत करना जरूरी है.
यही नहीं, प्रधानमंत्री मोदी लगातार विदेशी निवेशकों को भारत में आकर उद्यम लगाने और बैंकिंग समेत हर तरह की मदद देने का भरोसा दिला रहे हैं. हैरत नहीं, कि अंतरराष्ट्रीय स्तर के इस बैंक घोटाले ने भारतीय बैंकिंग व्यवस्था पर निवेशकों का भरोसा तोड़ दिया हो. विदेशी बैंक भारतीय बैंकों को शंका की दृष्टि से देखें और भविष्य में भारतीय उद्यमियों को भी देश के बाहर कारोबार में मुश्किलें खड़ी हो जाएं. 
बहरहाल, डैमेज कंट्रोल शुरू हो चुका है. सरकार ने आनन-फानन में नीरव मोदी और उनकी कंपनियों के खिलाफ कार्रवाई आरंभ की है. प्रवर्तन निदेशालय ने देश भर में नीरव मोदी समेत इस घोटाले से जुड़े आरोपियों के प्रतिष्ठानों पर छापेमारी की है. एजेंसियों ने पांच हजार करोड़ रु पये से कुछ ऊपर की कीमत वाली कई संपत्तियां भी जब्त की हैं. उच्चाधिकारियों का दावा है कि घोटाले की रकम आरोपितों से वसूल ली जाएगी. माल्या की तरह नीरव देश छोड़ कर न भागे, इसके लिए लुकआउट नोटिस से लेकर पासपोर्ट रद्द करने तक की कार्रवाई शुरू की गई है. घोटाले में शामिल संदिग्ध बैंक अधिकारियों के खिलाफ भी कार्रवाई की जा रही है.
लेकिन इस कवायद का परिणाम क्या होगा, कोई नहीं जानता. माल्या बैंकों की रकम लेकर भाग चुका है. सरकार उसे भगोड़ा घोषित कर चुकी है, लेकिन धन वापसी का कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा है. जानकारों का कहना है कि माल्या की तरह ही नीरव मोदी भी हाथ से फिसल चुका. बेल्जियम में पले-बढ़े और अमेरिका समेत दुनिया भर में फैले व्यापार के मालिक नीरव के पास किस किस देश के दस्तावेज हैं, इसकी भी पुख्ता जानकारी एजेंसियों के पास नहीं है. यानी चिड़िया खेत चुग गई है. देखना ये है कि सरकार बैंकों पर किस तरह की बाड़ लगाती है ताकि भविष्य में किसी बैंक में सेंध न लगे.

उपेन्द्र राय


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