मीडिया : हंसने की कला
एक प्रिंसिपल एक बच्चे के खराब रिपोर्ट कार्ड को लिए बैठा है. बच्चे की मां स्कूल में आकर प्रिंसिपल से मिलती है, और बिस्कुट खाने को देती है.
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प्रिंसिपल कहता है कि इसे कुछ नहीं आता तो मां कहती है, यह तो आपको भी नहीं मालूम ये पारले के बिस्कुट हैं. बाद में कैच लाइन आती है :‘नाम तो याद ही होगा.’ यह ‘निर्मल हास्य’ का एक नमूना है. यह पारले बिस्कुट का रिलांच है.
विज्ञापन उद्योग में इन दिनों उपहास का अक्सर इस्तेमाल करता है. उपहास ‘डिसरप्टिव’ होता है. स्थापित ब्रांड व्यवस्था में गड़बड़ करता है. ब्रांडों की आदेशमूलक निचाट नाटकीय गंभीरता को वह कहकहे से उड़ा देता है. बेहतरीन कैच लाइनें उपहास से युक्त होती हैं. हंसी का होना स्वास्थ्य की निशानी है. उसे सहना और बेहतर स्वास्थ्य की निशानी है. इसी तरह की उपहास वक्रता एक पुराने विज्ञापन में दिखी थी, जिसका सीन इस तरह खुलता था कि तीन एकदम आधुनिक लड़कियां एक कार से जा रही हैं कि कार का टायर पंचर हो जाता है. वे उतर कर नये टायर को लगाने लगती हैं कि एक युवक आकर पूछता है कि क्या कर रही हैं, तो तीनों उसी स्टायल की नकल करते हुए कहती हैं कि ‘हम टायर उतार रहे हैं, और चढ़ा रहे हैं.’ लड़का अपना-सा मुंह लेकर रह जाता है.
हास्य यों भी ‘डिसरप्टिव’ (व्यवस्था या सत्ता में गड़बड़ करने वाला) होता है, और स्त्री की हंसी तो और भी मारक होती है. इसीलिए हमारे साहित्य में औरतों की हंसी अधिक नहीं दिखती. और इसीलिए जब-जब कोई स्त्री किसी बात पर हंस देती है, तो मर्द समाज द्वारा बुरा माना जाता है. जब तक स्त्री उपहास की पात्र होती है, तब तक सब नॉर्मल माना जाता है. ज्यों ही कोई स्त्री किसी पर हंसती है, आफत आ जाती है. हास्य भी ‘जेंर्डड’ या ‘लिंगभेदवादी’ होता है.
ठंड के इन दिनों गरम कपड़ों को धोने के लिए एक लिक्विड सोप ‘ईजी’ का विज्ञापन आता है, जिसमें स्वेटर की चमक को देख कई औरतें आश्चर्य से समवेत ‘हूं उं उं’ करती हैं. औरतों की ऐसी ‘हूं उं उं’ सुनकर आपका चेहरा खिल उठता है. यह एकदम निर्मल हास्य है. ऐसे ही ‘डिश टीवी कनेक्शन’ के एक विज्ञापन में डींग मारने वाले एक लड़के के ऊपर हंसने वाली उसकी दीदी की हंसी उसे पानी-पानी कर देती है. यह नरम व्यंग्य है. मर्दवादी समाज में औरतों की हंसी बड़ी ‘डिसरप्टिव’ हेाती है क्योंकि वह मर्द के हंसने के एकाधिकार को चुनौती देती है. औरतों पर हंसने के आदी मदरे के ऊपर अगर कोई स्त्री जरा भी हंस दे तो मर्द सीधे श्राप देने लगते हैं.
अगर ‘हास्य’ अपनी प्रतिक्रिया में ‘बेहतर हास्य’ नहीं पैदा कर पाता तो वह या तो प्रतिक्रिया में ‘खिसियाहट’ पैदा करता है, या ‘गुस्सा’ पैदा करता है. अगर हास्य देशकाल और सुपात्र देखकर न किया जाए तो उसका परिणाम ‘महाभारत’ जैसा भी होता है. अगर द्रौपदी दुयरेधन को फिसलता देख ‘अंधे के बेटे अंधे होते हैं’ जैसा कटु व्यंग्य न करती तो शायद महाभारत नहीं हुआ होता. हास्य में मिठास न हो तो जहरीला हो जाता है. इसीलिए कहा जाता है कि उसका उपयोग देशकाल के अनुसार हो तो उत्तम, नहीं तो ‘रार’ पैदा करता है. हंसने का अधिकार अब तक सिर्फ मदरे के पास ही रहा है. इसीलिए किसी स्त्री का अचानक हंस उठना हमें नहीं भाता. इसे हम ‘लॉफ्टर शोज’ के हास्य या हास्य कवियों के हास्य से समझ सकते हैं.
टीवी और फिल्मों ने हंसी की जगह को फैलाया है. यहां कभी-कभी औरतें भी उपहास करती दिख जाती हैं. इस मामले में ‘खूबसूरत’ नाम एक पुरानी फिल्म की याद आती है, जिसकी नायिका रेखा एक ऐसे घर में प्रवेश करती है, जिसमें कई बेटों में मां किसी तानाशाह से कम नहीं है. वही सारे नियम-विनियम तय करती है. किसे क्या करना है, क्या नहीं, वही बताती है. उसके पति तक उसके आगे खामोश रहते हैं क्योंकि वह सब पर हावी रहती हैं.
ऐसे डिक्टेटोरियल परिवार में अचानक एक पढ़ी-लिखी चुलबुली युवती (रेखा) का प्रवेश होता है, और परिवार का ‘हमेशा डरा-सहमा’ माहौल अचानक बदलने लगता है. इस दमित माहौल को बदलने वाली होती है चुलबुली हंसने वाली और सब पर प्रैक्टीकल जोक करने वाली रेखा. इस फिल्म में रेखा पर फिल्माया एक गाना ‘सारे नियम तोड़ दो’ मां की पारिवारिक तानाशाही के खिलाफ एक बेहद मजाकिया और इसलिए बड़ा ही ‘डिसरप्टिव’ गाना है.
विद्वान बताते हैं कि हंसना एक ‘दोधारी’ कला है, जो यकीनन वातावरण को ‘डिसरप्ट’ करती है. अगर देशकाल के अनुसार सटीक बैठे तो वह हंसने वाले को भी काटती है.
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