बजट : दलित-आदिवासी कहां
बजट देश के आय-व्यय का लेखा-जोखा होता है. इससे सरकार की कार्यशैली का पता चलता है. प्राथमिकताओं का भी खुलासा होता है. सरकार अपने चुनावी घोषणा पत्र को आधार बनाकर बजट बनाती है.
बजट : दलित-आदिवासी कहां |
वर्तमान बजट में अनेक कार्यों के जिक्र से कई क्षेत्रों की बल्ले बल्ले है. खासकर पूंजीपति घरानों (कॉरपोरेट सेक्टर) की पौ बारह होगी. उधर, गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों को अधिकतर 2022 तक का वादा किया गया है.
मतलब कि कॉरपोरेट सेक्टर को तत्काल लाभ मिलेगा. 2014 के चुनाव में वादा किया गया था कि किसानों को उत्पादन के लागत खर्च पर लागत खर्च के साथ उसका 50 फीसदी जोड़कर लाभ दिया जाएगा. परंतु चुनाव के बाद किसानों को चौथे वर्ष में बजट द्वारा याद किया गया है. चार वर्षो की इस अवधि में किसान त्राहिमाम करते रहे. सैकड़ों किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो गए. धान, टमाटर, आलू, गोभी आदि का उचित मूल्य नहीं मिलने पर औने-पौने में बेचने को किसान मजबूर हो गए. आलू, टमाटर, गोभी को खेत में छोड़ दिया या बाजार में बिक्री न होने पर फेंक दिया. चूंकि लागत खर्च भी किसानों को नहीं मिला. दाल, धान आदि के क्षेत्रों में किसान परेशान और व्यापारी सरकारी नीतियों के कारण मालामाल हो गए, लेकिन किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिला.
वर्तमान बाजार में चावल, धान, गेहूं, चना की जो कीमत निर्धारित की गई है, वह आज के बाजार मूल्य से भी कम है. परिणामस्वरूप कृषि क्षेत्र में दलित-आदिवासी, ओबीसी का दैनिक मजदूरी तो न्यूनतम मजदूरी से भी कम होता है. चूंकि किसान मजदूरी देने में सक्षम नहीं है, और मजदूर भी कम में काम करने को मजबूर रहता, नहीं तो भूख मरना पड़ेगा. दूसरी ओर दलित-आदिवासी क्षेत्रों को जो छात्रवृत्ति मिल रही थी, उच्च शिक्षा की पढ़ाई में उसे बंद करके क्रेडिट कार्ड में बदल दिया गया. क्रेडिट कार्ड का मतलब है कर्ज, जिसे पुन: बैंक को वापस करना होगा. छात्रवृत्ति जब से संविधान लागू हुआ तब से दलित-आदिवासी कमजोर वर्ग के छात्रों को आर्थिक सहायता करने में असमर्थ थे, उसे पढ़ाई छोड़ कर घर वापस लौट जाना पड़ा. बीपीएल में अधिकांश संख्या है आरक्षित वर्ग के लोगों की, लेकिन जो भूमिहीन और गृहविहीन हैं, उनका स्थान बजट में दिखाई नहीं पड़ता. शिक्षा के क्षेत्र में जो मुफ्त शिक्षा व्यवस्था हाई स्कूल से नीचे के वगरे में की गई थी, उसे किताब मुहैया नहीं कराई गई और कराई गई तो वर्ष के अंत में आधे-अधूरे को उपलब्ध कराई गई है. यही हैं सरकार की प्राथमिकताएं. इससे सरकार की संवेदनशीलता का पता चलता है. भूमिहीन गृहविहीनों की आवास योजना की राशि बढ़ा दी गई परंतु संख्या घटाई गई. लागू करने की प्रक्रिया जटिल कर दी गई. इसके माध्यम से भी स्थानीय क्रियान्वयन एजेंसियों का दंश झेलना पड़ता है. जिस प्रकार विद्यार्थियों के लोन की प्रक्रिया जटिल है, उसी प्रकार दीनदयाल उपाध्याय आवास योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना के लागू होने की प्रक्रिया भी जटिल है. लाभान्वित लोग ही इस जटिलता को समझ सकते हैं. वृद्धावस्था पेंषन की संख्या को भारी मात्रा में घटा दिया गया है. समाज कल्याण विभाग के आवंटन की राशि को घटा दिया गया. कल्याण विभाग के आवंटन को घटा दिया गया जिससे दलित-आदिवासी और कमजोर वर्ग के सहयोग वाली राशि कम कर दी गई है.
स्वास्थ्य चिकित्सा क्षेत्र में बजट द्वारा पांच लाख तक के खर्च का बीमा कराने का वादा किया गया है. इसका लाभ तो मूल तौर पर कॉरपोरेट सेक्टर को ही मिलेगा. गरीब तक कितना पहुंचेगा यह अलग बात है, लेकिन कॉरपोरेट सेक्टर को गरीबों तक जरूर पहुंचा देंगे. चूंकि कॉरपोरेट जगत के लोग तो इस प्रक्रिया में पारंगत होते हैं. नीति आयोग का निर्णय था कि दलित-आदिवासी के विकास में आबादी के अनुपात में बजट के अंदर राशि का प्रावधान किया जाएगा. उसका अनुपालन नहीं हुआ. आबादी के प्रतिशत के अनुसार धन नहीं दिया गया. इससे साफ है कि दलित-आदिवासी को नकार दिया गया है. यह अलग है कि जो प्रावधान दलित-आदिवासी के लिए किया जाता है, उसका 50 फीसदी भी खर्च दलित-आदिवासी के विकास में खर्च नहीं किया जाता. पिछले वर्षो के खचरे से यह स्थिति स्पष्ट है. दलित-आदिवासी हाशिए पर हैं. विकास की धारा से दलित-आदिवासी को दूर करने का सफल प्रयास बजट के जरिए किया गया जो बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है.
| Tweet |