राजग : ढीला पड़ता बंधन

Last Updated 07 Feb 2018 06:10:37 AM IST

पिछले कुछ समय से भाजपा और सरकार में शामिल उसके सहयोगी दलों के बीच अविश्वास के बीज अंकुरित होते नजर आने लगे हैं.


राजग : ढीला पड़ता बंधन

ताजा मामला तेलुगू  देशम पार्टी (तेदेपा) से संबंधित है, जिसके प्रमुख और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने राष्ट्रीय बजट में प्रदेश की वित्तीय जरूरतों को अनदेखा किए जाने का आरोप लगाया है. पिछले सप्ताह बजट में प्रदेश के साथ न्याय नहीं करने की शिकायत करते हुए उन्होंने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गंठबंधन (राजग) के साथ रहने के अपने निर्णय की समीक्षा करने की धमकी तक दे डाली थी. लेकिन अब उनके तेवर में नरमी दिखाई दे रही है.
अपने कार्यकर्ताओं को शांत रहने और गठबंधन के मुद्दे को बाद में उठाने का उनका वादा व्यावहारिक सच्चाई को स्वीकार करना ही प्रतीत होता है. अपने सांसदों से संसद को बाधित करने के लिए कहना अब ज्यादा से ज्यादा केंद्र सरकार पर अपनी मांगें माने जाने के लिए दबाव डालने की एक रणनीति ही नजर आती है. केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह से मुलाकात के बाद तेदेपा से जुड़े सांसदों के इस बयान के बाद कि राजद गठबंधन से अलग होने का कोई प्रस्ताव नहीं था, कोई संदेह नहीं रह जाता कि फिलहाल, तेदेपा गठबंधन का हिस्सा बनकर ही रहेगी. लेकिन हां, वह केंद्र सरकार पर अपनी मांगों को मान लिए जाने के लिए दबाव बनाती रहेगी. चंद्रबाबू नायडू को पता है कि उनकी पार्टी सरकार में शामिल है, इसलिए उनके सांसद विपक्ष की तरह व्यवहार करने की स्वतंत्रता नहीं ले सकते.

भाजपा और तेदेपा के बीच ताजा तनाव का यदि कोई एक कारण है, तो वह केंद्र सरकार द्वारा आंध्र प्रदेश को विशेष पैकेज देने से इनकार करना है. विशेष पैकेज की मांग 2014 में पहली बार तब उठी थी, जब आंध्र प्रदेश का बंटवारा हुआ था, जिसके अंतर्गत राजधानी के रूप में हैदराबाद तेलंगाना को दे दिया गया था, और आंध्र प्रदेश को अपनी राजधानी के रूप में अमरावती को विकसित करना था. इसके अलावा पोलावरम बहुद्देशीय सिंचाई परियोजना के लिए भी आंध्र प्रदेश को केंद्र से पर्याप्त धन मिलने की आशा थी. विशेष पैकेज की मांग प्रदेश के लिए जहां प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है, वहीं नेताओं के लिए अपना समर्थन बढ़ाने का मुद्दा. विपक्षी नेता वाई. एस. जगन मोहन इस वक्त प्रदेश की पदयात्रा पर हैं, और अपने भाषणों से इसे जनता के बीच बहस का हिस्सा तो बना ही दिया है, साथ ही भाजपा के साथ गठबंधन की पूर्व शर्त भी बना दी है. वैसे भी, प्रदेश के अधिकांश लोग केंद्र सरकार द्वारा विशेष पैकेज नहीं दिए जाने को विश्वासघात के रूप में देखने के साथ-साथ चंद्रबाबू नायडू की विफलता मान रहे हैं. मालूम हो कि 2019 में आंध्र प्रदेश में विधानसभा के चुनाव भी होने वाले हैं. ऐसे में तेदेपा की परेशानी को समझना कोई कठिन नहीं है. आखिर वह चुनावी खतरा उठाना क्यों उठाना चाहेगी?
चंद्रबाबू नायडू अच्छी तरह जानते हैं कि अकेले दम पर चुनावी जीत हासिल करना उनके लिए कठिन होगा, इसीलिए कभी गरम तो कभी नरम तेवर अख्तियार कर रहे हैं. यदि केंद्र  सरकार से उन्हें विशेष पैकेज या अपेक्षित फंड मिल जाता है, तो वह इसे प्रदेश में अपनी कामयाबी के रूप में लोगों के सामने पेश कर सकते हैं. जाहिर है कि वह किसी भी तरह केंद्र  सरकार का सहयोग हासिल करना चाहते हैं. वैसे नायडू की विशेष वित्तीय पैकेज की मांग पूरा करने का वादा पिछली यूपीए सरकार के दौरान ही कर दिया गया था. कहने की आवश्यकता नहीं कि वर्तमान परिस्थितियों के मद्देनजर भाजपा के साथ गठबंधन को वाजिब ठहराने में उन्हें परेशानी हो रही है.
केवल तेलुगू देशम पार्टी ही नहीं, बल्कि अकाली दल और शिव सेना भी गठबंधन धर्म नहीं निभाने के लिए भाजपा की आलोचना कर रहे हैं. यहां तक कि बिहार के कतिपय क्षेत्रीय दल भी भाजपा को संदेह की नजर से देख रहे हैं. यहां तक कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी लोक सभा और विधानसभा के चुनाव साथ-साथ कराने के मोदी के प्रस्ताव को खारिज कर दिया है. लेकिन भाजपा की आलोचना में सबसे मुखर शिव सेना है. उसने तो घोषणा भी कर दी है कि वह अगले लोक सभा और विधानसभा के चुनाव अकेले दम पर ही लड़ेगी. इतना ही नहीं, शिव सेना का तो यह भी कहना है कि राजग की मौत हो चुकी है.

इसमें कोई शक नहीं कि यदि भाजपा के ये सहयोगी गठबंधन से अलग भी हो जाते हैं, तो सरकार के वजूद पर कोई खतरा नहीं होगा. इनके सहयोग के बिना भी सरकार की सेहत को कोई फर्क नहीं पड़ेगा. लेकिन तब भी यह भाजपा के लिए कोई अच्छी खबर नहीं हो सकती कि उसे लेकर उसके सहयोगी दलों में संदेह और अविश्वास की भावना बढ़ती जा रही है. इन सहयोगियों का गठबंधन से अलग होना आगामी चुनावों में कोई नया गुल भी खिला सकता है. यदि महाराष्ट्र में शिव सेना और भाजपा अलग-अलग चुनाव में उतरती हैं, तो जाहिर है कि भाजपा के लिए परेशानी खड़ी हो सकती है. एक बात तो साफ है कि मोदी और भाजपा की चमक फीकी पड़ने लगी है. गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा को जिस तरह एड़ी-चोटी का जोर लगाने के बाद किसी तरह जीत मिली और हाल में संपन्न हुए राजस्थान के उपचुनावों में उसकी करारी हार से स्पष्ट हो गया है कि वह अब अपराजेय पार्टी नहीं रही. ऐसे में कर्नाटक में भाजपा अपनी जीत का लक्ष्य पाने में सफल नहीं होती है, तो अगले लोक सभा चुनाव के दौरान नये समीकरण बनने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता. पिछले चुनावों में भाजपा अपने सहयोगी दलों के साथ चढ़कर सौदेबाजी करती रही थी, लेकिन आगे उस समीकरण में परिवर्तन भी देखने को मिल सकता है.

भाजपा इन स्थितियों के पनपने की आशंका से अनजान नहीं रह सकती और वह है भी नहीं. उनके नेताओं के ताजा बयानों से स्पष्ट है कि उसे अपने सहयोगी दलों की आपत्तियों का भान है. अगर ऐसा नहीं होता तो केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली कतई यह बयान नहीं देते कि सहयोगी दलों की आपत्तियों को दूर करने का प्रयास किया जाएगा. जाहिर है कि भाजपा नेतृत्व सहयोगी दलों खासकर चंद्रबाबू नायडू को संतुष्ट करने का जरूर प्रयास करेगा. बहरहाल, फूट के बीज तो अंकुरित होने ही लगे हैं.

कुमार नरेन्द्र सिंह


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