कर्नाटक : जान नहीं फूंक पाए मोदी
उत्साह से सराबोर माहौल की संभावना थी. पर नहीं, सब कुछ शांत और ठहरा-सा रहा. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 4 फरवरी को बेंगलुरू पहुंचे तो खासी उम्मीदें थीं, और लग रहा था कि अपनी भावभंगिमा से वे माहौल गरमा देंगे.
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यही कारण था कि लोग बड़ी संख्या में नेशनल ग्राउंड्स पर उन्हें सुनने के लिए उमड़ पड़े. हालांकि राज्य की राजनीतिक पार्टियों ने पहले ही चुनावी बिगुल बजा दिया है. लोगों की भीड़ चुनावी भाषण नहीं, बल्कि भारत खासकर कर्नाटक के सामने मुंह बाये खड़े वृहद् मुद्दों पर सुनना चाहती थी.
बेंगलुरू के लोग प्रधानमंत्री को ऊंचे पायदान का वक्ता और उनके कहे को ब्रह्म वाक्य सरीखा मानते हैं. लोग राजनेताओं द्वारा घेर कर नहीं ले आए गए थे, बल्कि प्रधानमंत्री के घोर समर्थक थे. इसलिए उन्हें खासी उम्मीदें थीं. क्या थीं ये उम्मीदें : पहली तो यह कि कर्नाटक के तटीय इलाके में हाल के समय में तीस से ज्यादा हिन्दू कार्यकर्ताओं की एक के बाद एक हत्याओं के बारे में कुछ कहेंगे. राज्य सरकार को स्पष्ट चेताएंगे कि इस दिशा में सख्त कार्रवाई नहीं की तो उसे नतीजे भुगतने होंगे. दूसरी, मोदी अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के बारे में कुछ कहेंगे. हालांकि प्रधानमंत्री से यह उम्मीद तो नहीं थी कि खुलकर कुछ कहते लेकिन इस बाबत उनकी ओर से कुछ संकेत मिलने की आशा जरूर थी. बेंगलुरू के लोग ऐसा चाहते थे क्योंकि प्रधानमंत्री जिस स्थान पर भाषण दे रहे थे, वहीं से राम मंदिर की निर्माण सामग्री इकट्ठा करने के अभियान की शुरुआत हुई थी.
तीसरी, लोग चाहते थे कि मोदी भारत में गौहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने के बारे में कुछ कहें. भारत में कर्नाटक पहला राज्य है, जिसने गौहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध संबंधी कानून प्रस्तावित किया था, लेकिन वोट बैंक खिसक जाने के डर से बाद की सरकारों ने इस तरफ ध्यान नहीं दिया. चौथी, लोग चाहते थे कि वह कावेरी जल विवाद पर कुछ बोलते जिसने कर्नाटक की अस्मिता और भावनाओं को खासा आहत कर रखा है. वर्षो से कर्नाटकवासियों को लगता रहा है कि उनके हिस्से का पानी तमिलनाडु हथिया लेता है. पांचवी, लोग चाहते थे कि मोदी भाजपा के दूसरी बार राज्य की सत्ता पर काबिज होने की बाबत कुछ कहते. इन संजीदे और वोट बटोरू विषयों के अलावा, बेंगलुरू के लोगों को यह उम्मीद भी थी कि मोदी राज्य सरकार के कामकाज पर तीखे हमले करेंगे. लेकिन उन्हें निराशा हाथ लगी क्योंकि मोदी उन्हीं मुद्दों पर बोले जिनका केंद्रीय बजट-2018-19 में पहले ही उल्लेख हो चुका था. लोगों को मायूसी हाथ लगी. उन्हें मोदी में तेज, विरोधियों पर कटाक्ष करने या उनका माखौल उड़ाने की तत्परता देखने को नहीं मिली जिसके लिए वह जाने जाते हैं. महसूस होता है कि मोदी को आभास हो चला है कि कर्नाटक की 224 सदस्यीय विधानसभा में साधारण बहुमत के लिए जरूरी 113 सीटों के आंकड़े तक भाजपा शायद न पहुंच पाए. इसलिए कि बीते डेढ़ेक साल से भाजपा में अंदरूनी उठा-पटक चरम पर रही है. पार्टी के राज्यस्तरीय अनेक शीर्ष और सम्मानित नेता खुलेआम एक दूसरे की टांग खिंचाई करते रहे हैं. इसके चलते मतदाताओं में उनकी छवि मलिन हुई है.
एक साल पहले भाजपा के लिए मिशन 150 को हासिल करना बेहद आसान था क्योंकि उसने बेंगलुरू स्थित एक शीर्ष बिजनेस स्कूल के साथ अनुबंध किया था, और वार्ड स्तर तक रणनीतियों पर काम कर रही थी. भाजपा इस बिजनेस स्कूल की सेवाओं के जरिए कर्नाटक में वार्ड स्तर पर मतदाताओं की छोटी से छोटी जानकारी का लेखा-जोखा रखती थी. इसके आधार पर बड़े पैमाने पर सोशल मीडिया के माध्यम से प्रत्येक ब्लॉक में कार्यक्रम आयोजित करती थी. इनमें कांग्रेस सरकार की नाकामियों का लगातार जिक्र किया जाता था. इसके अलावा, भाजपा को कांग्रेस के खिलाफ सत्ता-जनित आक्रोश का लाभ भी हासिल था. फिर, सत्तारूढ़ कांग्रेस की हिन्दू कार्यकर्ताओं की हत्याओं पर चुप्पी से भी लोगों में आक्रोश था. लेकिन भाजपा नेताओं के बीच आरोप-प्रत्यारोपों ने भाजपा के लिए लाभ की स्थिति को बिगाड़ दिया है. आज की तारीख में मुकाबले में दोनों पार्टियां-कांग्रेस और भाजपा-बराबरी पर होंगी. भाजपा को अतिरिक्त फायदा नहीं होगा.
एचडी देवेगौडा के नेतृत्व में जनता दल (सेक्युलर) के चुनावी मैदान में आने से भी भगवा पार्टी के लिए कठिनाई बढ़ेगी. इसे कमतर नहीं आंका जा सकता क्योंकि 40-50 सीटों पर जीतने की भविष्यवाणी की जा चुकी है. कांग्रेस की जहां तक बात है, तो यह राष्ट्रीय पार्टी इस उम्मीद से मैदान में उतरेगी कि वह अपनी मौजूदा 70 से ज्यादा सीटों को अपने कब्जे में बनाए रख सकेगी. हालांकि इस पार्टी में भी मुख्यमंत्री सिद्धरमैया को विफल देखने वाले नेताओं की कमी नहीं है. वे आगामी चुनाव में सिद्धरमैया को कांग्रेस के नक्शे से ही साफ कर डालने का कोई भी मौका नहीं चूकना चाहेंगे. भले ही गले न उतरे लेकिन सच यही है कि बाहरी होने के बावजूद उन्होंने मुख्यमंत्री के रूप में पांच साल का अपना कार्यकाल सफलतापूर्वक पूरा किया है. अनेक योजनाएं आरंभ की हैं, जिनसे माना जा रहा है कि महिलाओं और कृषक समुदाय को फायदा पहुंचा है. लेकिन सवाल यह है कि क्या इन योजनाओं का फायदा वास्तव में इन समुदायों तक पहुंचा भी है या नहीं. इसका जवाब 2018 के चुनाव में मिलना तय है.
संक्षेप में कह सकते हैं कि 2018 का चुनाव किसी पार्टी या उसकी राजनीति तक ही सीमित नहीं होगा. यह मुकाबला दो दिग्गजों-बीएस येदियुरप्पा और सिद्धरमैया-के बीच होगा. लेकिन जनता दल (सेक्युलर) को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकेगा, जो हमेशा से ‘किंगमेकर’ की भूमिका में उभरती है. चूंकि 118 के जादुई आंकड़े तक यह पार्टी पहुंचाती रही है. इस बार भी वह 40 सीटें और कांग्रेस अपनी मौजूदा 79 सीटों को कब्जे में बनाए रखती है, तो कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन की सरकार बनना तय है. यदि जेडीएस भाजपा के साथ जाती है, तो भाजपा के लिए 80 से ज्यादा सीटें जीतना जरूरी होगा. बहरहाल, एक बात साफ है कि कर्नाटक में त्रिशंकु असेंबली होगी.
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