मुद्दा : निजता का अधिकार और आस्था

Last Updated 06 Feb 2018 06:01:12 AM IST

कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय. ताची मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय.


मुद्दा : निजता का अधिकार और आस्था

क्या अपने खुदा को आवाज देने के लिए बांग देने की जरूरत पड़ती है ? आज से छह सदी पहले ही कबीर ने यह सवाल पूछ कर अपने वक्त में धर्म के नाम पर जारी पाखंड को बेपर्द किया था.
पिछले दिनों यह मसला कुछ अलग ढंग से उठा जब, दिल्ली की उच्च अदालत ने राज्य की सरकार और पुलिस महकमे को यह निर्देश दिया कि धार्मिक स्थानों से लाउडस्पीकरों को हटाने को लेकर उन्होंने उठाए कदमों के बारे में वह जानकारी उपलब्ध कराए. उच्च न्यायालय की द्विसदस्यीय पीठ ने-जिसमें मुख्य न्यायाधीश गीता मित्तल और न्यायाधीश हरिशंकर शामिल थे-उनसे यह भी जानना चाहा कि इस संबंध में उन्होंने जो आदेश जारी किया था- जैसा कि उनका दावा है-उसे भी अदालत के सामने पेश करे और उस आदेश को प्रचारित करने के लिए उठाए कदमों की भी जानकारी उपलब्ध कराए. सामाजिक कार्यकर्ता संजीव कुमार द्वारा दायर जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान अदालत ने यह आदेश दिया.

मालूम हो कि याचिकाकर्ता ने यह मांग की है कि किसी भी धार्मिक स्थल पर प्रयुक्त लाउडस्पीकर, नागरिकों के-जिसमें बुजुर्ग और अल्पवयस्क बच्चे शामिल होते हैं-अधिकारों का हनन करते हैं, वह दूसरों के साथ बात करने, पढ़ने, सोचने यहां तक कि सोने के अधिकार भी उल्लंघन करते हैं. इस बात को भी स्पष्ट किया गया है कि लाउडस्पीकर को किसी भी धर्म का एकीकृत हिस्सा नहीं माना जा सकता क्योंकि वह 1924 में ही अस्तित्व में आए और धर्म सदियों पुराने चले आ रहे हैं. इस बात को मद्देनजर रखते हुए कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पिछले ही साल निजता के अधिकार को संविधान की धारा 21 के तहत जीवन के अधिकार एवं व्यक्तिगत आजादी का एकीक्रत हिस्सा माना गया है- जिसके बारे में सुप्रीम कोर्ट की नौ सदस्यीय पीठ ने एकमत से राय दी थी और उसे संविधान में निहित बुनियादी अधिकारों का हिस्सा माना गया था-प्रार्थनास्थलों पर ध्वनिसंवर्धक यंत्रों की तैनाती इसी निजता के अधिकार का उल्लंघन करती दिखती है. जनवरी माह की शुरुआत में ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश पुलिस को यह आदेश दिया था वह प्राधिकारियों से उचित अनुमति लिये बिना तमाम धार्मिक स्थलों पर तैनात लाउडस्पीकर्स को तत्काल हटा दे ताकि ध्वनि प्रदूषण पर काबू पाया जा सके.
देखने में यह भी आता है कि इसके पहले भी अदालतों ने भी इस मामले में हस्तक्षेप किए हैं. इस संदर्भ में मुंबई हाईकोर्ट द्वारा नवी मुंबई इलाकों में प्रार्थनास्थलों पर-मंदिरों, मस्जिदों में-बिना अनुमति लगाए गए लाउडस्पीकर के बहाने डाली गई याचिका को लेकर दिए फैसले को भी रेखांकित किया जा सकता है. अदालत ने साफ किया था कि रात दस बजे से सुबह छह बजे तक प्रार्थनास्थलों से लाउडस्पीकर का प्रयोग वर्जित रहेगा, चाहे अजान का वक्त हो या आरती का. इस मामले में दायर जनहित याचिका को लेकर चली बहस में न्यायमूर्ति कानडे और न्यायमूर्ति पी डी कोडे की द्विसदस्यीय पीठ ने कहा था कि गैरकानूनी ढंग से लगाए गए लाउडस्पीकर तुरंत हटाने चाहिए, भले ही वह गणोशोत्सव, नवरात्रि या मस्जिदों पर लगे हों-भले ही मामला किसी भी धर्म, जाति या समुदाय का हो. उसने आम नागरिकों को आह्वान किया था कि वह ध्वनि प्रदूषण के खिलाफ एकजुट हों.
प्रार्थनास्थलों में लाउडस्पीकर का प्रयोग या धार्मिक आयोजनों में ध्वनि संवर्धक तमाम यंत्रों का प्रयोग, जो अक्सर विभिन्न समुदायों में आपसी तनाव की सबब बनता रहा है, उस संदर्भ में हम राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व चेयरमैन ताहिर महमूद के एक आलेख पर गौर कर सकते हैं, जिसमें उन्होंने अदालतों द्वारा समय-समय पर लिये ऐसे ही अन्य फैसलों की चर्चा की है. (लाउडस्पीकर प्रोवोकेशन, इंडियन एक्स्प्रेस 9 अगस्त 2014) इसमें सबसे चर्चित रहा है सर्वोच्च न्यायालय का वह फैसला, जिसमें उसने चर्च में लाउडस्पीकर के इस्तेमाल की चर्च की याचिका सिरेसे खारिज की थी और तर्क दिया था कि :निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि कोई धर्म यह शिक्षा नहीं देता है कि दूसरों की शांति भंग करके प्रार्थना की जाए, न वह यह कहता है कि लाउडस्पीकरों या ढोल बजाके इस काम को किया जाए.’ एक सभ्य समाज में, धर्म के नाम पर, ऐसी गतिविधियों को इजाजत नहीं दी जा सकतीं जो बूढ़े या विकलांग लोगों, छात्रों या ऐसे बच्चों को बाधित करती हों.

सुभाष गाताडे


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