उप चुनाव : सांप्रदायिकता का कार्ड फेल

Last Updated 03 Feb 2018 02:50:39 AM IST

आम चुनाव से पहले के उप चुनावों के परिणाम आम चुनाव के लिए एक संकेत के रूप में माने जाते हैं.


उप चुनाव : सांप्रदायिकता का कार्ड फेल

भारतीय राजनीति के इतिहास में उप चुनाव के नतीजों को आम चुनाव में दोहराते देखा गया है. 1977 में जनता पार्टी की सरकार एक बड़े जन आंदोलन के बाद बनी थी. ये किसी के लिए भी उम्मीद करना संभव नहीं था कि ढाई साल में ही प्रचंड बहुमत वाली सरकार का पतन हो जाएगा. लेकिन 1980 में जनता पार्टी की पराजय से पहले इंदिरा गांधी ने कर्नाटक में चिकमंगलूर  में हुए संसदीय उप चुनाव में जीत हासिल की थी. इंदिरा गांधी की वह जीत का एक नारा 1980 में उनकी पार्टी को फिर से सत्ता में बिठा दिया.
राजस्थान और पश्चिम बंगाल के चुनाव नतीजों को अपवाद के रूप में नहीं लिया जा सकता है. यह नतीजे हालात के बीच से निकले नतीजे हैं. राजस्थान में अलवर सीट से कांग्रेस उम्मीदवार करण सिंह यादव ने भाजपा के जसवंत सिंह यादव को 1,56,319 वोट से हरा दिया है. जसवंत यादव, वसुंधरा राजे सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं. अजमेर संसदीय क्षेत्र और विधान सभा क्षेत्र मांडलगढ़ में हुए उप चुनाव में भी कांग्रेस ने जीत हासिल की है. अजमेर लोक सभा क्षेत्र में कांग्रेस के रघु शर्मा ने भाजपा के रामस्वरूप लांबा को 84 हजार से अधिक और मांडलगढ़ विधान सभा सीट पर कांग्रेस प्रत्याशी विवेक धाकड़ ने भाजपा उम्मीदवार शक्ति सिंह को लगभग 13 हजार वोटों से हराया. राजस्थान में लोक सभा के लिए होने वाले अगले वर्ष के चुनाव से पूर्व ही विधान सभा के लिए चुनाव होंगे. करीब सवा चार वर्ष पहले जब विधान सभा चुनाव हुए थे तब भाजपा ने दो सौ सीटों वाली विधान सभा में 163 सीटें जीती थीं. लोक सभा में तो उसे सभी 25 संसदीय सीटें मिली.

विधान सभा चुनाव में कांग्रेस को मात्र 21 सीटें मिली थी और लोक सभा में वह शून्य पर पहुंच गई. लेकिन पिछले चार वर्षो में चार विधान सभा सीटों पर हुए उप चुनाव के नतीजों पर नजर डालें तो भाजपा को मात्र एक और कांग्रेस को तीन सीटें मिली. पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणाम एक अलग विश्लेषण की मांग करते हैं. लेकिन उस पर चर्चा से पहले राजस्थान के नतीजों का विश्लेषण अगले दोनों चुनाव-विधान सभा और लोक सभा-के मद्देनजर महत्त्व रखता है. राजस्थान पिछले चार वर्षो में सर्वाधिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ कई बहानों से सांप्रदायिक हमलों के लिए चर्चा में रहा है. हाल के उप चुनाव से पहले संजय लीला भंसाली की फिल्म पद्मावत के खिलाफ जिस तरह से सांप्रदायिक और जातीय उन्माद का वातावरण खड़ा हुआ, उससे भी लगा कि महारानी मुख्यमंत्री अपनी सत्ता अपनी सरकार के आर्थिक-सामाजिक विकास के कार्यक्रमों की सफलता के बूते पर लड़ने की कूव्वत नहीं रखती हैं. उसे एक ऐसे वातावरण का निर्माण करना है, जिससे भावनात्मक रूप से उत्तेजित होकर एक खास संप्रदाय के मतदाता भीड़ की शक्ल में मतदान केंद्रों पर टूट पड़े. लेकिन पद्मावत समाज पर सवर्ण पुरु षवादी वर्चस्व के पक्षधर के रूप में दिखने के बावजूद राजे सरकार मतदाताओं को भीड़ की शक्ल में तब्दील नहीं कर सकी.
राजस्थान के चुनाव नतीजे वास्तव में गुजरात विधान सभा के लिए हुए चुनाव के नतीजों के विश्लेषण के करीब ही पहुंचती है. बल्कि ये कहा जा सकता है कि राजस्थान गुजरात की अगली कड़ी है, जो कि गुजरात चुनाव के नतीजों के विश्लेषण को पुष्ट करती है. गुजरात में प्रधानमंत्री के चुनाव प्रचार में गुजरात का विकास मॉडल पृष्ठभूमि में चला गया. गुजरात के सामाजिक और राजनीतिक हलचल ने भाजपा को रक्षात्मक कर दिया और वहां के मतदाताओं में सांप्रदायिक कार्ड को पांच सौ के पुराने नोट की तरह खारिज कर दिया. यह अनुभव किया जाता है कि सरकार के कामकाज से निराशा में उपजे असंतोष को सांप्रदायिक वातावरण के जरिये एक बार तो भुनाया जा सकता है, लेकिन वह बार-बार कार्ड संसदीय राजनीति में जीत का स्थायी फार्मूला नहीं बन सकता है.
राजस्थान के चुनाव नतीजों को ये मानना भी सही नहीं लगता है कि वह कांग्रेस की सक्रियता का नतीजा है. वह सत्तारूढ़ पार्टी की संस्कृति और नीतियों के खिलाफ उजपा असंतोष है. समाज में जिस तरह का राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक असंतोष है, वह स्वाभाविक रूप से सबसे बड़े विपक्ष के रूप में कांग्रेस के पास मतदाताओं को ले जाता है. जैसे मनमोहन सिंह की सरकार के खिलाफ असंतोष भाजपा के उन मतदाताओं के बड़े हिस्से को ले गया, जो चुनाव नतीजों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं.
राजस्थान के नतीजों को महारानी वसुंघरा राजे और प्रथम सेवक नरेन्द्र मोदी के बीच राजनीतिक मतभेदों के रूप में भी विश्लेषित करना नतीजों की असल आवाज को अनसुना करना हो सकता है. दरअसल, संसदीय लोकतंत्र में भीड़ एक तरफ बढ़ती है और लगातार बढ़ रही है; इन नतीजों का यह संकेत है. पश्चिम बंगाल की उलबेड़िया लोक सभा सीट पर तृणमूल कांग्रेस ने अपना कब्जा बरकरार रखा और कांग्रेस के कब्जे वाली नोआपाड़ा विधान सभा सीट पर भी उसने जीत दर्ज की. उत्तर 24 परगना जिले के नोआपाड़ा सीट से तृणमूल के सुनील सिंह को जीत मिली है. पश्चिम बंगाल में इन नतीजों का विश्लेषण इस रूप में किया जा सकता है कि तृणमूल कांग्रेस अपने कामकाज के कारण अपनी लोकप्रियता बनाए हुए है. लेकिन यह रुढ़ किस्म का विश्लेषण है.
वास्तव में पश्चिम बंगाल की राजनीति एक नये तरह के संक्रमण से गुजर रही है. माकपा का लंबे समय तक शासन रहा है. मतदाताओं के बीच जो राजनीतिक विमर्श का एक ढांचा उस दौरान विकसित हुआ था, वह पूरी तरह बिखर चुका है. पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ने अपने पक्ष में जो मतों का समीकरण तैयार कर रखा है वह उसे तभी बरकरार रख सकती है जब कि भाजपा एक बड़े खतरे के रूप में वातावरण को निर्मिंत करते दिखे. तृणमूल के मतों के समीकरण और उस समीकरण के प्रति समर्पित ममता के लगातार आने वाले संदेश भाजपा के आधार को विस्तारित करने में मदद कर रहे हैं, ये नतीजे उसी के संकेत है.

अनिल चमड़िया


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment