सोशल मीडिया : दंगाई न बनने दें
विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र की बुनियाद है. इस अधिकार के उपयोग की खातिर सोशल मीडिया ने जो असीम अवसर नागरिकों को दिए हैं, एक दशक पूर्व इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी.
सोशल मीडिया : दंगाई न बनने दें |
इसके माध्यम से समाज में कई क्रांतिकारी परिवर्तन भी देखे गए. लेकिन अब इस माध्यम के जरिये दुष्प्रचार, गलतफहमी और समाज में तनाव फैलाने की घटनाएं काफी हो रही हैं.
उत्तर प्रदेश के कासगंज में इन दिनों सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ने से सोशल मीडिया के दुरु पयोग की तरफ पुन: ध्यान गया है. जब भी दंगे होते हैं, उसमें अफवाह और भी आग में घी डालने का काम करते हैं. फलत: चिंगारी बुझने के बजाए और भी भड़क जाती है. कासगंज में इन अफवाहों को प्रसारित एवं प्रचारित करने का सशक्त माध्यम सोशल मीडिया बना. मसलन गणतंत्र दिवस के अवसर पर आयोजित होने वाले जश्न में राजपथ पर प्रदर्शित अत्याधुनिक हथियारों को यह कहकर निर्थक बताने का प्रयास किया गया कि इसका क्या फायदा जब देश के अंदर तिरंगा लेकर चलने वाले ही असुरक्षित हों. ऐसी न जानें कितनी घृणा फैलाने वाली सामग्रियां डाली गई.
किसी दूसरे देश में हुए दंगों की तस्वीरों या वीडियो को भी कासगंज का बताकर पेश किया गया, जिससे धार्मिंक उन्माद को और भड़काया जा सके. हद तो तब हो गई जब सोशल मीडिया में राहुल उपाध्याय की हिंसा में मौत होने का झूठा प्रचार किया जाने लगा. ट्विटर और फेसबुक पर राहुल उपाध्याय की तस्वीरें शेयर की जाने लगी. इतना ही नहीं कुछ लोग तो उन्हें ‘शहीद’ करार देने वाले पोस्ट भी लिखने लगे. मगर कुछ देर बाद ही असलियत लोगों के सामने आ गई,जब राहुल उपाध्याय ने खुद थाने पहुंचकर अपने जिंदा होने का सबूत पेश किया. स्पष्ट है कि दंगा को भड़काने के लिए ऐसी अफवाहें फैलाई जा रही थी. इन्हीं अफवाहों के कारण कासगंज में हिंसा का दौर जल्द थमने का नाम नहीं ले रहा था. यही नहीं अलीगढ़ और मैनपुरी जिले भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाए. खैर जो भी हो इस मामले ने राज्य सरकार के विधि व्यवस्था की भी पोल खोल दी. कासगंज मामले को देखते हुए अब सोशल मीडिया के दुरु पयोग रोकने के लिए कुछ नियामकीय व्यवस्था अपरिहार्य हो गई है. न केवल कासगंज अपितु इसके पूर्व जम्मू-कश्मीर, राजस्थान, पश्चिम बंगाल में भी सोशल मीडिया के दुरु पयोग के मामले सामने आते रहे हैं. नफरत भड़काने वाली सामग्री को साझा करने से न केवल सौहार्द बिगड़ता है, अपितु आंतरिक सुरक्षा पर भी आंच आ सकती है. लिहाजा भारत को भी वैसे ही कठोर कानून की जरूरत है ,जैसा हाल ही में सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक सामग्री प्रयोग करने वालों पर शिंकजा कसने के लिए जर्मनी ने बनाया है. इसके अंतर्गत सोशल मीडिया कंपनियों को 24 घंटों के भीतर आपत्तिजनक सामग्री हटाना होगा वरना उन पर पचास लाख यूरो से पांच करोड़ यूरो तक जुर्माना लगाया जा सकता है. यदि सामग्री प्रथमदृष्टया आपत्तिजनक तो है, परंतु हिंसा भड़काने वाली नहीं है, तो कंपनियों को कार्रवाई करने के लिए सात दिन का समय दिया जाता है.
कंपनियों को हर छह माह में सार्वजनिक रूप से बताना होगा कि उन्हें कितनी शिकायतें मिली और उन पर किस प्रकार संज्ञान लिया गया? सोशल नेटवर्क का ऐसा कोई भी प्लेटफार्म जिसके सदस्यों की संख्या 20 लाख से ज्यादा है, उन्हें शिकायत निवारण तंत्र बनाना होगा. भारत में फेसबुक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का दुरूपयोग किस प्रकार हो रहा है, इसे फेसबुक द्वारा जारी किए गए आंकड़ों से ही समझा जा सकता है. जुलाई से दिसम्बर 2016 की संक्षिप्त अवधि में फेसबुक ने भारत में 719 संवेदनशील अपत्तिजनक कंटेट्स को ब्लॉक किया. इसलिए आवश्यक है कि हिंसा या दंगों की दौरान सोशल मीडिया को दंगाई न बनने दिया जाए.
सुप्रीम कोर्ट द्वारा सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2000 की धारा 66 ए को असंवैधानिक घोषित किया गया, परंतु इसी सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2000 के धारा 69 ए को वैध ठहराया गया था, जिसके अंतर्गत कानून प्रवर्तन एजेंसियों को यह अधिकार दिया गया है कि वो किसी भी कंप्यूटर संसाधन के माध्यम से किसी भी सार्वजनिक उपयोग को अवरु द्ध करने के लिए दिशा-निर्देश जारी कर सकते हैं. भारत सरकार को समझना होगा कि हालात बिगड़ने पर इंटरनेट की सुविधा को कुछ देर केवल बंद कर देने से समस्या का समाधान नहीं होगा. हमें भी जर्मनी जैसी पहल की जरूरत है.
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