बजट-2018-19 : उम्मीद ही तो है

Last Updated 02 Feb 2018 05:18:18 AM IST

एनडीए-दो के अंतिम पूर्ण बजट से उम्मीद नहीं थी कि यह कुछ नया होगा. इसे भारत के बड़े वंचित तबकों के प्रति चिंता दर्शाने के साथ ही कृषि क्षेत्र, जिसमें इन तबकों का बड़ा हिस्सा नियोजित है, पर भी थोड़ा ध्यान देने वाला होना था.


बजट-2018-19 : उम्मीद ही तो है

कृषि क्षेत्र की हर तरह से अनदेखी होती रही है, और बीते चार साल तो ऐसे रहे जब यह क्षेत्र   शिथिलता की चपेट में रहा.
माना जा रहा था कि बजट से तीन सवालों का जवाब मिलेगा. पहला, चुनाव-पूर्व तकाजे किस हद तक पूरे होंगे. ऐसे कि माहौल बने. भले ही भारतीय समाज के उपेक्षित और हाशिये पर पड़े वगरे के कल्याण के जरूरी उपायों के लिए धन न भी हो. दूसरा, अतार्किक राजकोषीय लक्ष्य हासिल करने के लिए वास्तविक राजस्व जुटाने और आंकड़ेबाजी के लिए किन तरीकों को वित्त मंत्री अपनाने में सफल हो पाएंगे. और तीसरा सवाल था कि हर साल सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रचार के इस पुलिंदे को सरकार किस तरह से इस्तेमाल करती है कि प्रधानमंत्री के इस दावे की पुष्टि हो कि प्रधानमंत्री अब तक के सर्वाधिक धैर्यवान ‘सुधारक’ हैं. जहां तक पहले सवाल की बात है, तो निष्कर्ष स्पष्ट है : यह बजट वहां पैसा मुहैया नहीं कराता है, जहां जरूरत है. जैसी की उम्मीद थी, यह बजट ग्रामीक्ष क्षेत्र, लघु उद्योग और हाशिये पर पड़े वगरे के लिए विशेष नीतियों को लेकर तमाम बातें कहता है, लेकिन हैरत यह है कि जरूरी बजटीय संसाधन मुहैया कराने की प्रतिबद्धता नहीं दिखती. उदाहरण के लिए कृषि के मामले में कृषि, सहकारिता एवं किसान कल्याण विभाग के लिए बजट में 2017-18 के संशोधित अनुमान की तुलना में मात्र 7 प्रतिशत का इजाफा किया गया है. यह वृद्धि नगण्य है.

संकट में पड़े क्षेत्र के लिए खासा बजटीय आवंटन करने के बजाय वित्त मंत्री ने इस क्षेत्र के लिए सांस्थानिक ऋण को 10 लाख करोड़ से बढ़ाकर 11 लाख करोड़ रुपये करने का वादा भर किया. वह उनका नहीं, बल्कि बैंकों का पैसा है, जो पहले से ही संकट का सामना कर रहे हैं. किसान-हितैषी बात इतनी भर है कि एमएस स्वामीनाथन आयोग की न्यूनतम समर्थन मू्ल्य संबंधी सिफारिश के अनुसार न्यूनतम समर्थन मूल्य लागत का डेढ़ गुना रखा जाएगा. लेकिन यहां भी लोचा है कि क्या विभिन्न उपज इन दामों पर खरीदी जा सकेंगी. अन्य क्षेत्रों में भी गरीब और सीमांत लोगों के हालात बेहतर करने संबंधी दावों को पूरा करने के लिए अतिरिक्त संसाधनों की कमी दिखती है. वित्त मंत्री ने घोषणा की है कि ‘वि का सबसे बड़ा सरकार-पोषित स्वास्थ्य देखभाल कार्यक्रम’ आरंभ किया जाएगा. इसके तहत ‘दस करोड़ गरीब और कमजोर आर्थिक स्थिति वाले परिवारों’ में प्रति परिवार पांच लाख रुपये सालाना का स्वास्थ्य देखभाल कवरेज मुहैया कराया जाएगा. हैरत इस बात का एक भी रुपया इस मद के लिए नहीं रखा गया है. न ही यह पता चल सका है कि क्या बीमा कंपनियों से प्रीमियम की बाबत चर्चा की गई है. यकीनन, चर्चा होने के बात यह कार्यक्रम संसाधनों के अभाव में ठंडे बस्ते में डाल दिया जाना है. एक और बात, बजट भाषण में गरीबों के लिए घर की चर्चा हुई है. लेकिन प्रधानमंत्री आवास योजना के सामान्य आवंटन में मात्र 3 प्रतिशत का ही इजाफा किया गया है.
यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि बजट 2018-19 में रूरल इंप्लॉयमेंट गारंटी स्कीम के लिए आवंटन उसी स्तर पर रखे गए हैं, जिस स्तर पर 2017-18 के बजट में थे. गौरतलब है कि इस मद के लिए 2018-19 में 55 हजार करोड़ रुपये का आवंटन किया गया था, 2018-19 के बजट में भी यह वैसा ही है. ध्यान देने की बात यह भी है कि 2017-18 में इस धनराशि तक पूरा उपयोग नहीं किया गया था. वह भी इस तथ्य के बावजूद कि इस योजना के तहत दिहाड़ियों के लिए खासी मांग थी, और पगार का बकाया अभी तक लंबित पड़ा है. इस तरह वित्तीय व्यय को कम रखने के प्रयासों के बावजूद वित्त मंत्री 3.2 प्रतिशत के अतार्किक राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को हासिल करने में असफल रहे हैं. 2017-18 के लिए घाटा (अपेक्षित) अनुमानित 3.5 प्रतिशत है, तो 2018-19 के लिए 3.3 प्रतिशत. उल्लेखनीय है कि मौजूदा वित्तीय वर्ष में घाटा लक्ष्य से ज्यादा रहा. वह भी उस सूरत में जब 1) वित्त मंत्रालय के बाबुओं ने बड़े परिव्यय वाले आइटमों (जैसे कि बैंकों का पुनपरूजीकरण) को चतुराई दिखाते हुए बजट की परिधि से बाहर रखा; और 2) बजट पेश करने से एक दिन पहले सरकार को एचपीसीएल में अपने 51.1 प्रतिशत हिस्से के एवज में ओएनजीसी से 36,915 करोड़ रुपये प्राप्त किए थे. (यही कारण रहा कि विनिवेश से होने वाली प्राप्तियां बढ़ कर 1,00,000 करोड़ रुपये हो गई जबकि बजटीय अनुमान 72,500 करोड़ रुपये प्राप्त होने का था). स्पष्ट है कि जीएसटी की मद में प्राप्तियों में गिरावट के कारण नवम्बर, 2017 तक राजकोषीय घाटे का आंकड़ा 112 प्रतिशत तक पहुंच जाने की इस मामले में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही.
इससे पता चलता है कि न तो जीएसटी उम्मीद पर खरी उतर पा रही है, और न ही अर्थव्यवस्था राजस्व  उगाही के लिहाज से अपनी भूमिका के साथ न्याय कर पा रही है. संभवत: इसीलिए सरकार यह बजटीय प्रावधान करने को तत्पर हुई है जिससे स्टॉक मार्केट में एक वर्ष से ज्यादा समय तक के निवेश  पर पूंजीगत लाभ पर कराधान लागू किया जाए. गौरतलब है कि दीर्घकालिक पूंजीगत लाभ पर कराधान के प्रावधान को 2003-04 में समाप्त कर दिया गया था. लेकिन इसे फिर से लागू किया जा रहा है. अब एक लाख रुपये से ज्यादा राशि के लाभ पर 10 प्रतिशत और अल्पकालिक पूंजीगत लाभ पर 15 प्रतिशत का कर लगेगा. लेकिन स्टॉक मार्केट ने इस प्रावधान के प्रति तीव्र प्रतिक्रिया जताई तो हो सकता है कि बजट के पारित होने से पूर्व ही इस प्रावधान को वापस ले लिया जाए. और इस बात की बहुत संभावना है.
ऐसा नहीं हुआ तो सरकार की ‘सुधारवादी’ छवि को धक्का लगेगा और विदेशी निवेशकों में अच्छा संकेत नहीं जाएगा. भले हम जोर-शोर से कहते रहें कि भारत में ‘कारोबारी माहौल’ उम्दा है, अपनी उपलब्धियां गिनाते रहे हों लेकिन इस प्रावधान से भारत की ‘आकषर्क गंतव्य’ के रूप में अच्छी छवि नहीं बन पाएगी. बहरहाल, चुनाव-पूर्व वर्ष में खासे बढ़े-चढ़े अंदाज में अर्थव्यवस्था की तस्वीर उकेर सकते थे. वे ऐसा करने की स्थिति में थे, लेकिन वे ऐसा कर नहीं पाए. चुनाव-पूर्व वर्ष में जिस अंदाज का बजट होना चाहिए था, उस अंदाज का पेश नहीं कर सके. उस पर दिक्कत यह रही है कि वित्त मंत्री अच्छे वक्ता भी नहीं हैं.   

सी.पी. चंद्रशेखर


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