मुद्दा : उजड़े चमन से रैनबसेरे क्यों?

Last Updated 16 Dec 2017 01:26:05 AM IST

गर्मी गरीबों का मौसम, सर्दी अमीरों का’ यह कहावत यों ही नहीं बना. इसका असली मतलब समझना हो तो बेघरों पर नजर डालिए.


मुद्दा : उजड़े चमन से रैनबसेरे क्यों?

गांव-देहात में बेघरों को फिर भी कुछ आसरा मिल जाता है, जलते अलाव और झोपड़ियों में पुआल के बिछौने से काम चल जाता है, पर ज्यादा कहर टूटता है शहरी बेघरों पर. गांव-कस्बे से उखड़कर रोजी-रोजगार के लिए या फिर इलाज के लिए शहर के अस्पतालों में डेरा डालने वालों के लिए सर्दी तो जैसे सितम बनकर आती है. शहरों में उनका सहारा होते हैं, वे रैन-बसेरे जिन्हें सरकारें ऐसे ही गरीब-मजलूमों के लिए बनाती और चलाती है. पर ज्यादातर रैन बसेरे किन हालात में रहते हैं, उनमें कैसी सहूलियतें मिलती हैं-इस बारे में एक अंदाजा समय-समय पर की जाने वाली अदालती टिप्पणियों से मिल जाता है.
कुछ वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को निर्देश दिया था कि वे बेघरों के लिए रैन-बसेरों की समुचित व्यवस्था करें जिससे ठंड से एक भी व्यक्ति की मौत न हो. यह कोर्ट की ही राय थी कि सर्दी के मौसम में राजधानी दिल्ली के अलावा जम्मू-कश्मीर, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों के बेघर सर्वाधिक प्रभावित होते हैं. रैन-बसेरों के अभाव के चलते उन्हें रातें बेहद ठंड में खुले आसमान के नीचे सड़कों पर बितानी पड़ती हैं, जिनसे उनकी जान पर बन आती है. अदालत इससे चिंतित थी कि ज्यादातर राज्यों ने बेघर लोगों को आसरा मुहैया कराने की दिशा में कुछ खास काम नहीं किया है. आज से नौ साल पहले 2008 में हुए एक अध्ययन से पता चला था कि दिल्ली में करीब डेढ़ लाख लोगों को ठंड में बाहर रात गुजारनी पड़ती हैं. इस एक दशक के अंतराल में यह आंकड़ा ज्यादा तो नहीं बढ़ा, लेकिन सर्दी में बेघरों की मौतों में इजाफा जरूर हुआ है.

दिल्ली में बेघरों की दुर्दशा का एक मामला हाल में यहां की विधानसभा में भी उठा है. बताया गया है कि रैन-बसेरों में बरती जा रही लापरवाही के कारण बेघरों की मौत के आंकड़े बढ़ रहे हैं. आंकड़ों में देखें तो इसी साल दिल्ली में 402 बेघर लोगों की मौत हो चुकी है, जबकि वर्ष 2016 में यह आंकड़ा 221 था. दिल्ली के कश्मीरी गेट इलाके में ही मरने वाले बेघरों की संख्या में 200 फीसद बढ़ोत्तरी हुई है. हालांकि इन मौतों के बारे में आम आदमी पार्टी की अलका लांबा ने दावा किया था कि ये मौतें सर्दी की वजह से नहीं, बल्कि नशे के कारण हुई पर उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने स्वीकार किया था कि बेघरों की मौत के लिए नशे के साथ-साथ भुखमरी और सर्दी भी बड़ा कारण हैं और इसकी जिम्मेदारी आम आदमी पार्टी नहीं, बल्कि राजनिवास और केंद्र सरकार पर है. अगर दिल्ली को ही देखें तो यहां डेढ़ लाख बेघरों की जरूरत के उलट रैन-बसेरों में महज 4890 लोगों के रहने की व्यवस्था है. सभी बेघरों की जरूरत के मुताबिक कम-से-कम सवा 19 लाख वर्ग फीट जगह की जरूरत है, लेकिन फिलहाल मौजूदा रैन-बसरों में सिर्फ दो लाख वर्ग फीट जगह मुहैया कराई गई है. यही नहीं, पिछले दिनों ऐसे समाचार आए थे कि दिल्ली स्थित एम्स के नजदीक स्थित जिस सब-वे को रात में रैन-बसेरे के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है, उसे कमाई के उद्देश्य से किसी व्यावसायिक संस्था को दे दिया, जिससे अस्पताल में इलाज कराने आए लोगों के परिजनों को खुले में सड़क पर रात बितानी पड़ती है. यह भी कितनी विचित्र बात है कि देश के सबसे बड़े अस्पताल के नजदीक कोई स्थायी रैन-बसेरा तक नहीं है.
बहरहाल, रैन-बसेरे यों ही ठप्प नहीं होते हैं. इसकी शुरुआत तब होती है, जब सरकार उन्हें पैसा देना बंद कर देती है या फिर उस जगह को किसी व्यावसायिक उपयोग में ले लिया जाता है. इंडो-ग्लोबल सोशल सर्विसेज सोसाइटी यह खुलासा कर चुकी है कि दिल्ली सरकार जो रैनबसेरे तंबुओं में लगाती है, उनमें से ज्यादातर इसीलिए बंद हो जाते हैं क्योंकि उन्हें मिलने वाला पैसा रु क जाता है. कायदे से ये रैन-बसेरे पक्के भवन में चलने चाहिए पर तंबू या शामियाने में बने होने के कारण लोग कई सुविधाओं से वंचित हो जाते हैं. जैसे बाथरूम जैसी जरूरी सहूलियत का नहीं मिलना एक आम समस्या बन जाता है. साथ ही रैन-बसेरे अक्सर नशेड़ी-शराबी और जुआरियों का अड्डा बन जाते हैं. यह एक प्रशासनिक खामी है कि एक बार बना दिए जाने के बाद रैन-बसेरों के सुचारु संचालन का जिम्मा सरकारें नहीं  उठाती हैं. आपराधिक प्रवृत्ति के लोग सोते हुए लोगों के कंबल छीन लेते हैं.

अभिषेक कुमार


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