डूबते कर्ज : अतीत से छुटकारा जरूरी

Last Updated 16 Dec 2017 01:32:06 AM IST

डूबत कर्ज का जिन्न फिर बाहर आ गया है. एक उद्योग प्रतिनिधि संगठन में बोलते हुए पीएम नरेन्द्र मोदी ने जो कहा, उसका आशय यह है कि डूबत कर्ज घोटाला है.


डूबते कर्ज : अतीत से छुटकारा जरूरी

इस घोटाले की जिम्मेदारी पूर्ववर्ती सरकार या यूपीए सरकार की है. पीएम मोदी का आशय यह है कि डूबत कर्ज घोटाला तमाम घोटालों से बड़ा घोटाला है. तकनीकी तौर पर डूबत खातों में फंसी रकम तमाम घोटालों में फंसी रकम से ज्यादा है.
सरकारी बैंकों की डूबत कजरे में फंसी रकम जून 2017 में करीब सात लाख तैंतीस हजार करोड़ रु पये थी. यह रकम मार्च 2015 में दो लाख 75 हजार करोड़ रुपये थी. इसका मतलब यह नहीं है कि मार्च 2015 से जून 2017 के बीच डूबत कजरे में बहुत तेज बढ़ोत्तरी हो गई. इसका मतलब यह है कि जो कर्ज पहले डूबत कजरे में नहीं गिने जाते थे, वह कर्ज भी डूबत कजरे में गिने जाने लगे. रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन का डूबत कर्ज परियोजना में महत्त्वपूर्ण स्थान है, उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि डूबत कजरे को साफ तौर पर चिह्नित किया जाए. पहले तमाम बैंक और खासतौर पर सरकारी बैंक लीपापोती से डूबत कजरे को बतौर डूबत कर्ज न दिखाते थे. वह उन्हें सामान्य कारोबारी कजरे में ही दिखाते थे. रिजर्व बैंक की सख्ती से डूबत कर्ज बतौर डूबत कर्ज दिखाई देने लगे. मोटे तौर पर इसे यूं समझा जा सकता है कि पहले बीमार आदमी को भी स्वस्थ दिखाने की कवायद चलती थी. अब बीमार बैंक बीमार ही दिख रहे हैं और सबसे ज्यादा बीमारी सरकारी बैंकों में ही दिख रही है. कुल डूबत कजरे का नब्बे प्रतिशत सरकारी बैंकों के खाते में है. भारतीय बैंकिंग का दो तिहाई से भी ज्यादा हिस्सा सरकारी मिल्कियत में है.

जाहिर है डूबत कजरे में भी बड़ा हिस्सा सरकारी बैंकों के खाते में आना था. समझने की जरूरत यह है कि डूबत कर्ज पैदा कैसे हुए? बैंक किसी कंपनी को, किसी कारोबार को कर्ज देते हैं, तो एक हद तक संभव है कि बैंकों का मूल्यांकन गलत हो जाए. जैसे बहुत संभव है कि  विजय माल्या की हवाई जहाज कंपनी को कर्ज देते वक्त बैंकों को लगा है कि हवाई उड़ानों का कारोबार भारत में बहुत शानदार कारोबार है. इसमें मुनाफे की पर्याप्त संभावनाएं उन्हें दिखायी पड़ सकती थीं. पर यह कारोबार उतना मुनाफे का साबित न हुआ बल्कि रकम डुबोनेवाला साबित हुआ. रकम डुबोनेवाला कर्ज अगर गलत मूल्यांकन की वजह से दिया गया है, तो इसमें बेईमानी की बात नहीं है. बड़े-से-बड़े मूल्यांकनकर्ता का मूल्यांकन गलत हो सकता है. बड़े-से-बड़े निवेशक का आकलन गलत हो सकता है. माल्या की किंगफिशर एयरलाइंस में सरकारी और निजी दोनों तरह के बैंकों की रकम डूबी थी. तो यह कहना भी ठीक नहीं है कि हमेशा निजी बैंकों का आकलन सही ही होता है. पर देखने की बात यह है कि निजी बैंक डूबत कजरे के साथ आम तौर वह सलूक करते हैं, जो एक कारोबारी को करना चाहिए. उनसे छुटकारा पाकर, उन्हें अपने हिसाब से हटाकर नये कारोबार पर फोकस करने का. ऐसा रवैया सरकारी बैंक न दिखा पाते. स्टेट बैंक और एचडीएफसी बैंक दोनों ही शेयर बाजार में सूचीबद्ध बैंक हैं. स्टेट बैंक सबसे महत्त्वपूर्ण सरकारी बैंक है और एचडीएफसी बैंकसबसे अहम निजी क्षेत्र का बैंक है. दोनों के कामकाज की खबर शेयर बाजार लेता है.
शेयर बाजार अगर किसी कंपनी के कामकाज से निराश होता है, तो उसके भाव गिर जाते हैं या बहुत ही कम गति से बढ़ते हैं. स्टेट बैंक का शेयर दस सालों में सिर्फ  37 प्रतिशत बढ़ पाया है. यानी स्टेट बैंक का शेयर एक दशक में दोगुना भी ना हुआ जबकि एचडीएफसी बैंक दस सालों में 443 प्रतिशत बढ़ा यानी दस सालों में यह पांच गुने से ज्यादा हो गया. यहां से कुछ अहम सवाल खड़े उठते हैं. कर्ज देने के कारोबार में एचडीएफसी बैंक भी है और स्टेट बैंक ऑफ इंडिया भी है. फिर डूबत कर्ज स्टेट बैंक या दूसरे सरकारी बैंकों के खाते में ही क्यों आते हैं. घूम-फिरकर सवाल वहीं आता है कि तमाम समस्याओं के प्रति रुख क्या है? निजी बैंकआम तौर पर भ्रष्टाचार से संचालित नहीं होते. आम तौर पर वहां कट कमीशन देकर कोई कर्ज पास नहीं करवाया जा सकता. दबाव डालकर भी नहीं. वहां चूक होती है, तो आकलन की चूक हो सकती है.
विजय माल्या की किंगफिशर में सरकारी बैंक भी फंसे थे. वहां आकलन की चूक थी. पर उस चूक को दुरुस्त करके वह नये कारोबार में लगते हैं. पर सरकारी बैंकों का हाल अलग है. सरकारी बैंक सरकार के होते हैं और सरकार नेताओं और मंत्रियों की होती है. यानी सरकारी बैंक अगर लगातार गलत आकलन, या भ्रष्टाचार के चलते गलत कर्ज देते रहे हैं, तो जिम्मेदारी सरकार  की है. इस दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि मनमोहन सिंह की सरकार के दस साल लंबे कार्यकाल के दौरान सरकारी बैंकों के लगातार कुप्रबंधन, भ्रष्टाचार की जिम्मेदारी मनमोहन सरकार की बनती है. पर बात अब आगे जाने की है. जो हुआ, वह हो ही चुका है. अब सवाल है कि डूबत कजरे से निपटा कैसे जाए? पीएम मोदी आरोप लगा चुके हैं पुरानी सरकार पर, अब उन्हे बताना कि डूबत कजरे से निपटने का ठोस रास्ता क्या है? सरकारी बैंकों को नई पूंजी देनी होगी. सरकारी बैंकों के प्रबंधन में हस्तक्षेप से बचना होगा. सरकारी बैंकों को कारोबारी तौर पर चलाना होगा. यह देखना होगा कि सरकारी योजनाओं का बोझ सरकारी बैंकों पर ना पड़े.
मुद्रा योजना के तहत दिए गए कर्ज डूबते हैं, तो वह सरकार अपने बजट से दे, ना कि सरकारी बैंकों पर बतौर बोझ उसे डाला जाए. सरकारी योजनाओं का बोझ सरकारी बैंक क्यों उठाएं, यह सवाल उठता है, जब उन बैंकों को लाभदायकता और कुशलता के मानकों पर निजी बैंकों से प्रतिस्पर्धा करनी है, तो उनके कामकाज के हालात भी वैसे ही बनने चाहिए. सरकार को जो भी योजना, कर्जमाफी चलानी है उसका प्रावधान बजट से किया जाए. बैंकों की आय से नहीं. इन मसलों को ध्यान में रखा जाना जरूरी है. वरना भविष्य में डूबत कर्ज अलग तरह से पैदा होंगे और उन पर अलग तरह के आरोप लगेंगे. सरकारी बैंकों को आरोपबाजी की नहीं, ठोस कदमों की दरकार है.

आलोक पुराणिक


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