वैश्विकी : अंदेशों में लिपटीं अंखुआतीं आशाएं
नेपाल में केपी ओली की नेकपा (यूएमएल) और पुष्प कमल दहल प्रचंड की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी सेंटर) गठबंधन को प्रतिनिधि सभा के चुनाव में स्पष्ट बहुमत मिल गया है.
वैश्विकी : अंदेशों में लिपटीं अंखुआतीं आशाएं |
अब वहां एक नये युग की शुरुआत होने जा रही है. दलविहिन पंचायत लोकतंत्र की निरंकुशता से संघीय गणतंत्र का यह लंबा सफर काफी उतार-चढ़ाव वाला रहा है. पिछले 11 साल से चली आ रही आंतरिक अस्थिरता से आजीज आ कर जनता ने राजनीतिक स्थिरता और शांति के लिए जनादेश दिया है. एशिया-अफ्रीका के अन्य पिछड़े देशों की तरफ यहां भी लोग नये राजनीतिक बदलाव के बाद अशिक्षा और आर्थिक द्ररिद्रता से मुक्ति पाने की राह देख रहे हैं. 1979 ओैर 1990 के जनमत संग्रह और 2006 के दूसरे जनांदोलन के बाद भी लोगों ने इसी तरह की अपेक्षाएं पाल रखी थीं. लेकिन राजनीतिक नेताओं के निजी स्वार्थ और अति-महत्त्वाकांक्षा के कारण जनआकांक्षाएं पूरी नहीं हो सकीं. इसलिए अभी से अनेक आशंकाएं दिखाई दे रही हैं.
वामपंथी एलायंस के घटक दल नेकपा (यूएमएल) को प्रतिनिधि सभा में सबसे ज्यादा सीटें मिली हैं. इसलिए इसके नेता केपी ओली प्रधानमंत्री बन सकते हैं. इनको चीन समर्थक माना जाता है. लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी सेंटर) के नेता प्रचंड का राजनीतिक कद केपी ओली के समानांतर है. नेपाली राजशाही को जड़ से उखाड़ने में उनका और उनकी पार्टी का सर्वाधिक योगदान रहा है. लोकतांत्रिक संस्थाओं के संस्थाकरण और राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया में ये दोनों नेता कितनी दूर साथ-साथ चल पाते हैं, अभी कहना मुश्किल है. नये संविधान में वित्तीय संघवाद का प्रावधान है. इसके मुताबिक सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं को अपनी वित्तीय जरूरतों के लिए राजस्व जुटाना होगा.
स्थानीय निकायों और प्रांतीय विधानसभाओं को इसके लिए केंद्र के अनुदानों पर निर्भर रहना होगा. संघीय व्यवस्था को लागू करना नई सरकार की सबसे बड़ी चुनौती है. उसे इस मद में भारी राजस्व की जरूरत होगी. इसके लिए उसे घरेलू और विदेशी दोनों मोचरे पर निजी निवेशकों को आमंत्रित करना होगा. यह अहम सवाल है कि केपी ओली के नेतृत्व में बनने वाली नई सरकार कट्टर वामपंथी नीतियों पर ही चलती रहेगी या निजी निवेशकों के लिए लचीला रुख अपनाती है.
नेपाल आर्थिक पुनर्निर्माण कौन-सा रास्ता पकड़ता है, यह वामपंथी गठबंधन के दो मुख्य नेताओं केपी ओली और प्रचंड के रुख पर निर्भर करेगा. चूंकि दोनों नेता चीन समर्थक माने जाते हैं, इसलिए उम्मीद है कि नेपाल में चल रही चीनी परियोजनओं को गति मिलेगी. चीन की महत्ती परियोजना ‘वन बेल्ट, वन रोड’ को प्रचंड ने अपने प्रधानमंत्रित्वकाल में हरी झंडी दे रखी है. लेकिन नेपाल की नई सरकार को चीन की चालाकी और अवसरवादी रुख को ध्यान में रख कर ही आगे बढ़ना होगा. पिछले दिनों चीन ने भ्रष्टाचार के बहाने पाकिस्तान में ‘वन बेल्ट, वन रोड’ के काम को रोक दिया है. वहीं पाक का अवाम इस परियोजना के ही खिलाफ है. तो इस परिप्रेक्ष्य में नेपाल भारत के विरुद्ध चीनी कार्ड का इस्तेमाल एक सीमा से ज्यादा नहीं कर सकता; क्योंकि भारत और नेपाल के बीच खुली सीमा है. दोनों देशों के बीच सदियों पुराना गहरा सांस्कृतिक संबंध है. ऐसे में भारत को चाहिए कि वह अपनी बहुविध विशालता के फेर नेपाल को छोटा न समझे. अपना बंधु समझे और उससे बराबरी का व्यवहार करे. ऐसा करके वह नेपाल की शंकाओं को दूर कर सकता है.
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