परत-दर-परत : आंतरिक लोकतंत्र किस चिड़िया का नाम है?

Last Updated 17 Dec 2017 01:03:49 AM IST

उपाध्यक्ष राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने पर बहुत-से लोगों ने कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र के अभाव की आलोचना की है.


परत-दर-परत : आंतरिक लोकतंत्र किस चिड़िया का नाम है?

सबसे तीखी आलोचना भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने की है, जिन्होंने सुविधापूर्वक भुला दिया कि उनकी पार्टी में जो जरा भिन्न आवाज उठाते हैं, उनकी गति बलराज मधोक और गोविंदाचार्य सरीखी कर दी जाती है. सही है कि शीर्ष स्तर पर भाजपा में वंशवाद दिखाई नहीं पड़ता पर वंशवाद न होने का मतलब यह नहीं है कि वहां लोकतंत्र भी है. जब आरएसएस के एक पुराने प्रचारक रामनाथ कोविंद, जिन्हें तब देश भर में मुट्ठी भर लोग जानते थे, को राष्ट्रपति बनाने का प्रस्ताव आया तो स्वयं भाजपा के लोगों को भी हैरत हुई होगी. लेकिन किसी ने भी पार्टी से पुनर्विचार करने का आग्रह नहीं किया. यह संघ और भाजपा के पूरे इतिहास में सबसे ज्यादा चौंका देने वाला फैसला था, लेकिन इसका पालन जिस ‘देअर इज नॉट टु क्वेश्चन ह्वाई, देअर इज बट टु डू एंड डाई’ के सैनिक अंदाज में हुआ, उससे पता चलता है कि संघ परिवार में विचारधारा के स्तर पर ही नहीं, विभिन्न नियुक्तियों के मामले में भी एकमत होने की बाध्यता है.
जब तक कांग्रेस ‘डिबेटिंग सोसायटी’ बनी रही, उसमें आंतरिक लोकतंत्र था, या नहीं, यह प्रश्न ही फिजूल है, क्योंकि तब कांग्रेस अध्यक्ष होने से किसी प्रकार की सत्ता नहीं मिलती थी. कांग्रेस का शक्तिशाली होना तब शुरू हुआ, जब महात्मा गांधी ने पार्टी में प्रवेश किया. चवन्निया सदस्य होने के अलावा और बाद में यह अर्हता छोड़ देने के बाद भी लगभग तीस वर्षो तक महात्मा गांधी कांग्रेस के एकछत्र डिक्टेटर रहे. यद्यपि कांग्रेस का अध्यक्ष पद उन्होंने एक बार ही संभाला. कांग्रेस में किसी एक विचारधारा के लोग नहीं थे, इसलिए कांग्रेस के अधिवेशनों में असहमतियां जरूर मुखर होती थीं, और गांधी जी इतने लोकतांत्रिक तो थे ही कि उन्होंने असहमतियों को दबाने की कोशिश नहीं की. लेकिन अंत में होता  वही था, जो गांधी जी चाहते थे.

असहयोग आंदोलन वापस लेने और द्वितीय वि युद्ध के दौरान सरकार से सहयोग न करने के फैसले से कांग्रेस के अधिकतर लोग दुखी थे, लेकिन चली गांधी जी की. इसका सबसे भारी खमियाजा सुभाष बाबू को भुगतना पड़ा जब वे गांधी के उम्मीदवार पट्टाभि सीतारमय्या को हरा कर कांग्रेस का अध्यक्ष चुने गए पर जिन्हें बाद में उन्होंने ही पहली बार ‘फादर ऑफ द नेशन’ कहा, उनके ही हस्तक्षेप के बाद बोस इस पद पर काम नहीं कर सके. इसी तरह ‘भारत का पहला पीएम कौन बने’, इस पर कांग्रेस में मतदान होने पर पटेल को बहुमत मिला. लेकिन नेहरू को पीएम बनाने की गांधी की इच्छा ही हावी हुई.
नेहरू को बहुत बड़ा ‘डेमोक्रेट’ माना जाता है, लेकिन आजाद भारत में वे तीन बार कांग्रेस अध्यक्ष चुने गए जब वे देश के प्रधानमंत्री भी थे. इस तरह पार्टी और सरकार की सत्ता का केंद्र एक ही बन गया जिसकी विधिवत परंपरा 1978 में उनकी बेटी इन्दिरा गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने से स्थापित हुई. नेहरू ने तो यह सावधानी भी नहीं बरती कि उनके प्रधानमंत्री रहते हुए उनके परिवार का कोई व्यक्ति कांग्रेस अध्यक्ष न बने. लेकिन यह भी हुआ जब 1959 में इन्दिरा कांग्रेस अध्यक्ष चुनी गई. सच तो यह है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही कांग्रेस अध्यक्ष होने का मतलब खत्म हो गया क्योंकि होता वही था, जो नेहरू चाहते थे. बाद में प्रत्यक्ष वंशवाद की परंपरा स्थापित की इन्दिरा गांधी ने जो 1978 से 1984 तक कांग्रेस अध्यक्ष बनी रहीं.
उसके बाद यह नियम ही बन गया कि कांग्रेस का अध्यक्ष वही हो सकता है, जो उनके परिवार में पैदा हुआ हो. इसका एकमात्र अपवाद थे नरसिंह राव जो पांच वर्ष तक प्रधानमंत्री थे और कांग्रेस अध्यक्ष भी. इसलिए राहुल गांधी के संदर्भ में प्रश्न ही बेमानी है कि कांग्रेस अध्यक्ष बनने की योग्यता उनमें है, या नहीं. असली सवाल यह है कि नेहरू-गांधी परिवार के किसी व्यक्ति को अध्यक्ष न बनाया जाए तो पार्टी को खत्म होने में कितने वर्ष लगेंगे. सवाल यह भी है कि आंतरिक लोकतंत्र की जरूरत किसे है? विचारधारा पर आधारित पार्टयिों में आंतरिक लोकतंत्र की जरूरत इसलिए नहीं है कि सभी के विचार एक जैसे हैं, अत: जो भी व्यक्ति शीर्ष पर है, वह स्वीकार्य है. भाजपा का मामला इसलिए अलग है कि उसके लिए संघ की अहमियत वैसी है, जैसी कांग्रेस पार्टी में नेहरू-गांधी परिवार की.
संघ का नियंत्रण हटा दीजिए तो भाजपा में भी मारकाट शुरू हो जाएगी क्योंकि तब वह भी अन्य पार्टयिों की तरह सत्ता हासिल करने का औजार बन जाएगी. क्षेत्रीय पार्टयिों में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है, क्योंकि ये पार्टियां कुछ खास व्यक्तियों द्वारा अपने चमत्कार और अध्यवसाय से खड़ी की गई हैं, और निजी संपत्ति जैसी हैं. लेकिन समाजवादी पार्टी का विभाजन इस बात का सबूत है कि वंशवाद में भी यह देखा जाता है कि कौन पार्टी को सत्ता में ला सकता है. अन्ना डीएमके, तेलुगू देशम आदि में संस्थापक नेता की मृत्यु के बाद प्रतिद्वंद्विता इसी आधार पर हुई थी. अंग्रेजी की कहावत कि विजेता दूसरों के लिए कुछ भी नहीं छोड़ता, सबसे अधिक भारत की राजनीति पर ही लागू होती है.

राजकिशोर


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