शिक्षा : कीमत चुकाते छात्र
तमिलनाडु के वैल्लोर जिले में एक माध्यमिक स्कूल की चार छात्राओं ने खुदकुशी कर ली. इन चार छात्राओं सहित सात अन्य को विद्यालय से निकाल देने की धमकी दी गयी थी.
शिक्षा : कीमत चुकाते छात्र |
इनका अपराध यह था कि वे कक्षा के ‘नियम’ को तोड़ कर बातचीत कर रही थीं. परीक्षा में भी इनका प्रदर्शन अच्छा नहीं था. इन तथाथित ‘गलतियों’ की सजा के रूप में इन्हें कहा गया था कि वे अपने अभिभावकों को विद्यालय की प्रधानाचार्या से मिलने को कहें ताकि इनकी इस ‘स्थिति’ के बारे में अभिभावकों से बात की जा सके. यह घटना शिक्षा में व्याप्त अनुशासन और दंड की गंभीर समस्या की दु:खद परिणति है.
शिक्षिका ने जब कक्षा में दो छात्रों को बात करते देखा तो निगरानी के अधिकार का प्रयोग कर प्रधानाध्यापिका से शिकायत की. शिक्षिका को विद्यार्थियों की यह गलती इतनी गंभीर लगी कि उसने अपने शक्ति-क्षेत्र के बाहर जाकर प्रधानाचार्या को उक्त प्रकरण में शामिल किया. इन छात्राओं के माध्यम से प्रधानाचार्या ने सभी विद्यार्थियों को आगाह किया. इस दौरान पीड़ित छात्राओं के लिए ‘डायन’ जैसे शब्द प्रयुक्त किये गए. अक्सर इस तरह के औजारों को बदमाश बच्चों को नियंत्रित करने का तरीका बताया जाता है. जबकि वास्तविकता है कि यह तरीका अनुशासन के अनुचरों और परिस्थितियों को दूर करने का प्रयास है जो एक बड़े या ताकतवर और छोटे या कमजोर के बीच आज्ञापालक और अनुगामी होने के संबंध को कमजोर कर सकते हैं. इसी प्रवृत्ति का एक अन्य उदाहरण विद्यार्थियों को कम तेज और अधिक तेज जैसी रैंक देना है.
रैंक में अंतर का कारण अनुशासित होने को बताना है. इस बहाने विद्यार्थियों के बीच बातचीत को हतोत्साहित किया जाता है और लगातार उन्हें अनुशासन से विचलन का बोध कराया जाता है. आप किसी भी स्कूल और कक्षा में ‘कोई समय बर्बाद न करें‘, ‘कोई आलसी न हो‘ और ‘सभी काम समय पर जमा करें‘ जैसे वाक्यांशों का प्रयोग देख सकते हैं. ये वाक्यांश विद्यार्थियों को ध्यान दिलाते रहते हैं कि उन्हें अनुशासन के नियम से विचलित नहीं होना है. इसी तरह नकारात्मक पहचानों और ठप्पों का प्रयोग जैसे- आलसी, कामचोर, बातूनी और बैकबेंचर कहना एक अन्य औजार हैं जो निष्क्रियता को बढ़ावा देता हैं. ऐसे विशेषणों का प्रयोग करने वाले इन्हें विद्यार्थियों को ‘ठीक करने के’ का उपकरण मानते हैं.
सवाल है कि असफल घोषित करने के ये ठप्पे जो विद्यार्थियों को अपमानित करते हैं क्या वे सकारात्मक हो सकते हैं? इसका जवाब उपर्युक्त घटना से मिलता है. इस घटना में शिक्षिका ने पीड़ित छात्राओं को बातूनी और कम अंक आने पाने वाले विद्यार्थियों की पहचान देकर अपमानित किया. इस अपमान जन्य वाचिक और मानसिक हिंसा की प्रतिक्रिया में आत्महत्या की घटना हुई. यह उल्लेखनीय है कि नियंत्रण का कठोर ताना-बाना न केवल संस्था की संस्कृति में स्वीकार्य है बल्कि इसकी गहनता पद के अनुसार घटती-बढ़ती है. इसी कारण शिक्षिका ने एक सीमा तक सजा दी और विद्यालय से निकालने जैसी कठोर सजा के लिए प्रधानाध्यापिका को शामिल किया. विडंबना देखिए जिन शिक्षकों को मार्गदशर्क और अभिभावक के स्थान पर रखते हैं, वे ऐसे व्यवहारों को सीखने की शर्त मानते हैं. अनुशासन के नाम पर किसी की आवाज को दबा देना न मालूम शिक्षा और शिक्षण के किस लक्ष्य की पूर्ति करता है और न जाने क्यों आज भी हमारे दिमाग में अच्छे विद्यार्थी की कसौटी का मुख्य निर्धारक उसका आज्ञापालक और अनुगामी होना है? अनुशासन का यह पाठ स्कूल के रास्ते घर-परिवार तक पहुंच चुका है.
आजकल ‘शिक्षित’ माता-पिता भी सीखने और अनुशासित रहने को एक दूसरे का पर्यायवाची मान रहे हैं. अनुशासन की यह कैंची स्वाभाविकता और नैसर्गिक प्रतिभा के पर कतरने को उतावली है. इन प्रभावों में हम ऐसे समाज के सदस्य बन रहे हैं जो अनुशासन की ढाल से अपने अहं को तुष्ट करना चाहता है, अज्ञानता को छुपाना चाहता है, खुद को औरों से अलग दिखाना चाहता है और सबसे बढ़कर असहिष्णु होने की कमजोरी को अनुशासन के रास्ते वैध ठहराना चाहता है. क्यों न हम खुद से सवाल करें कि क्या विद्यार्थियों की स्वाभाविकता और नैसर्गिकता के बलिदान के बिना हम उन्हें वयस्क नहीं बना सकते? क्यों अनुशासन का चाबुक स्वतंत्रता और व्यक्ति की गरिमा के मूल्य को हांक रहा है? क्यों विद्यालय जैसी संस्थाएं जेल, अस्पताल और पागलखाने जैसी जान पड़ रही हैं?
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