अयोध्या : ध्वंस अभी भी जारी है

Last Updated 06 Dec 2017 03:59:49 AM IST

अयोध्या को छूकर बहने वाली सरयू में छह दिसम्बर, 1992 की त्रासदी के बाद भी ढेर सारा पानी बह चुका है.


अयोध्या : ध्वंस अभी भी जारी है

फिर भी यह सच बदलने को नहीं आ रहा कि उस दिन बाबरी मस्जिद का ढहाया जाना एक इब्तिदा भर थी, और उसके साथ चल निकला प्रगतिशील सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और संवैधानिक मूल्यों के ध्वंस का सिलसिला अभी तक जारी है. हां, इधर ‘नया भारत’ बनाने के अभियानों के बीच यह इतना ‘शातिर’ कहें, ‘शांत और चुपचाप’ या कि ‘बेआवाज’ हो चला है कि कई कानों को उसकी खबर ही नहीं होती.
वैसे ही, जैसे उन्मत्त कारसेवकों द्वारा ‘विवादित’ बाबरी मस्जिद के साथ अयोध्या की 24 अविवादित मस्जिदों पर बोले गए धावों की नहीं हुई थी, और जब किशोरों, बूढ़ों और महिलाओं समेत कोई डेढ़ दर्जन ‘बाबर की औलादों’ की क्रूर हत्याओं की ही खबर नहीं हुई तो उनके 458 घरों व दुकानों में तोड़फोड़ और आगजनी की कैसे होती? पच्चीस साल बाद भी यह त्रास जस का तस है कि भले ही बाबरी मस्जिद के गुनहगारों पर मुकदमे चल रहे हैं, उक्त डेढ़ दर्जन निर्दोषों के हत्यारों की खोज का एक भी उपक्रम संभव नहीं हुआ. दिखावे के लिए भी नहीं.
बाबरी मस्जिद के स्वामित्व संबंधी विवाद में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आना बाकी है, लेकिन ध्वंसधर्मिंयों ने फैसला पहले ही कर रखा है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत नये दर्प के साथ कह रहे हैं कि अयोध्या में सिर्फ  मन्दिर बनेगा, सो भी ‘वहीं’ तो समझा जा सकता है कि केंद्र में नरेन्द्र मोदी और उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकारें बनने के बाद से अब तक का आखिरी ध्वंस संघ परिवारियों की तथाकथित शर्म का हुआ है.

समझने चलें तो याद आता है कि विवाद में एक समय मुख्य बिंदु यह बन गया कि क्या मस्जिद किसी मंदिर को तोड़कर बनाई गई थी, तो राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 143 के अनुसार सुप्रीम कोर्ट से बाबत राय देने को कहा था. उस कोर्ट से जो बाबरी मस्जिद के ध्वंस को ‘राष्ट्रीय शर्म’ की संज्ञा दे चुका था. लेकिन 1994 में उसने यह कहकर कोई राय देने से इनकार कर दिया कि अयोध्या एक तूफान है, जो गुजर जाएगा लेकिन उसके लिए सुप्रीम कोर्ट की गरिमा और सम्मान से समझौता नहीं किया जा सकता. अयोध्या के इस तूफान के सामने सुप्रीम कोर्ट ने जैसी दृढ़ता दिखाई, वैसी न दूसरी अदालतों ने दिखाई और न खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वाली शक्तियों और सरकारों ने.
आखिर, ये शक्तियां कब समझेंगी कि 1986 में फैजाबाद की जिला अदालत के आदेश पर विवादित ढांचे के ताले खोले जाने, 1989 में विहिप द्वारा ‘वहीं’ मन्दिर का शिलान्यास किए जाने, मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद 1990 में उग्र कारसेवा आंदोलन और 1992 में बाबरी मस्जिद के ध्वंस तक इन पहलुओं की एक लंबी श्रृंखला है. एक तरफ कांग्रेस द्वारा भाजपा से उसका हिन्दू कार्ड छीनने की कोशिशें करने और विफल होने की कहानी कहती है, तो दूसरी ओर भूमंडलीकरण की बाजारोन्मुख आंधी के अनथरे तक की कहानी भी है. कारसेवकों में से अधिकांश ऊंची जातियों और खाये पीये अघाये वर्ग के थे, और मंडल आयोग की सिफारिशें लागू किए जाने से नाराज थे. समझते थे कि अयोध्या में अपनी सेवाएं देकर नये इतिहास का निर्माण कर रहे हैं. उनके आने से वे संत-महंत बहुत खुश थे जो अब तक उत्तर प्रदेश और बिहार के गांवों-कस्बों के छोटे-बड़े किसानों और दुकानदारों की पीढ़ियों से हासिल हो रही पारंपरिक श्रद्धा और चढ़ावे पर गुजर-बसर करते थे. अमीर कारसेवकों की आमदरफ्त बढ़ने से उनका बाजार बढ़ रहा था. उन्हें इसके लिए विश्व हिन्दू परिषद् का कृतज्ञ होने में कोई समस्या नहीं थी.
पूंजी का प्रवाह बढ़ने से अयोध्या में नये निर्माणों की झड़ी-सी लग गई. पहले जो संत-महंत एक दो रु पयों के लिए रिक्शे वालों से किच-किच करते दिखते थे, लग्जरी कारों में नजर आने लगे और सशस्त्र गाडरे के पहरे में निकलने लगे. अयोध्या की टूटी-फूटी बेंचों वाली चाय की दुकानें ‘श्रीराम फास्टफूड आउटलेट्स’ में बदलने लगीं. यह सिलसिला जल्दी ही रक्तरंजित इतिहास की पुस्तकों और कारसेवा के दौरान पुलिस फायरिंग के अलबमों, कैसेटों और सीडियों तक जा पहुंचा. जब तक आम लोग इस सबको समझते, बहुत देर हो गई थी. आज जब इस देरी के कारण देश बेहद खतरनाक फासीवादी मोड़ पर आ खड़ा हुआ है, खुद को बहुलतावादी और धर्मनिरपेक्ष कहने वाली शक्तियों ने इन सारे परिप्रेक्ष्यों को उनकी समग्रता में नहीं समझा तो हमारा भावी इतिहास उन्हें क्षमा नहीं करने वाला.

कृष्ण प्रताप सिंह


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