पेंशन : बुजुर्गों का ख्याल जरूरी
अभी बीती 30 नवम्बर तक निजी क्षेत्र की कंपनियों से सेवानिवृत हो गए कर्मी अपने ही बैंकों के चक्कर काट रहे थे. इन बैंकों में उनकी सांकेतिक पेंशन आती है.
पेंशन : बुजुर्गों का ख्याल जरूरी |
दरअसल, इन्हें बैंकों में इसलिए जाना पड़ रहा था ताकि वहां पर जाकर बता सकें कि अभी भी जीवित हैं इस संसार में. यह एक वार्षिक कार्य है, जो इन पेंशनभोगियों को पितृ तर्पण की तरह हर साल करना ही पड़ता है. इन सभी को मिलती है मासिक 1250 से लेकर 10 हजार रुपये तक की पेंशन. समझ सकते हैं कि इतनी कम राशि में अपने और अपनी बूढ़ी औरत के लिए दाल-रोटी का इंतजाम करना भी असंभव है. दवा, कपड़ा और कमरे के किराये की तो बात न ही करें तो अच्छा होगा.
हां, केंद्र और राज्य सरकारों के रिटायर कर्मिंयों को तो पेंशन अब संतोषजनक सी मिलने लगी है. केंद्र सरकार से सेक्शन आफिसर पद से रिटायर होने वाले कर्मी को मासिक 40 हजार रुपये से अधिक तक की मासिक पेंशन मिल जाती है. पीएफ, ग्रैच्यूटी, सरकारी अस्पतालों में मुफ्त इलाज जैसे और दूसरे लाभ तो मिलते ही हैं. केंद्र और राज्य सरकारों के विभिन्न विभागों से रिटायर कर्मिंयों का आंकड़ा बमुश्किल तीन-चार करोड़ होगा. इसमें केंद्र और राज्यों उपक्रमों में काम कर रहे या सेवानिवृत्त कर्मिंयों को जोड़ लें तो यह आंकड़ा पांच-छह करोड़ के आसपास हो जाता है. लेकिन, इनमें सबको पेंशन नहीं मिलती. इनको तो एक तरह से कुछ न कुछ सामाजिक सुरक्षा मिल रही है. पर बाकी की स्थिति तो दिन-ब-दिन बद से बदतर ही होती जा रही है. निजी क्षेत्रों में तो छोड़ ही दें, ज्यादातर सरकारी विभागों और उपक्रमों में भी अब ठेके पर ही कर्मिंयों को रखा जा रहा है. ज्यादातर को उनकी रिटायरमेंट से पहले ही चलता कर दिया जाता है. वरिष्ठ नागरिक होने पर वे तिल-तिल को मोहताज हो जाते हैं.
सबसे विकट स्थिति है देश में असंगठित क्षेत्रों से जुड़े करोड़ों कामगारों की. इनकी सामाजिक सुरक्षा के बारे में क्या कोई सोच रहा है? इनकी छत, भोजन, बीमार होने पर दवाई वगैरह की व्यवस्था किस तरह से होती है? स्वास्थ्य देखभाल और बुढ़ापा पेंशन जैसे सामाजिक सुरक्षा के लाभ संगठित क्षेत्र के कर्मचारियों को ही मिलते हैं. गैर-संगठित क्षेत्र में काम करने वालों की बात करें तो इन्हें सही तरह से सरकारी योजनाओं के लाभ तक नहीं मिल पाते. देश की कुल श्रम शक्ति का 90 फीसद हिस्सा असंगठित क्षेत्रों से ही जुड़ा है. साठ साल की उम्र के बाद इनका क्या होता होगा?
एक बढ़िया सरकारी योजना मोदी सरकार लाई है, ‘अटल पेंशन योजना’. लेकिन इसका लाभ सिर्फ कामगार ही ले सकता है, वह भी सिर्फ अपने लिए. उसके पास न तो अतिरिक्त पैसा होता है न ही इतने साधन या समय कि योजना का लाभ लेने के लिए चक्कर काटे या सालाना नवीनीकरण करवाए. कुछ बड़े संस्थानों ने पैसे देकर अपने कर्मचारियों को इस योजना का लाभ देना भी चाहा तो नियम आड़े आ गया. तीन साल तो हो गए सरकार में फाइलें ऊपर नीचे हो रही हैं. लेकिन इसकी लाभ संस्थाओं को क्यों नहीं मिलना चाहिए, इसके तर्क ही ढूंढ़े जा रहे हैं अब तक. बाबू को तो पेंशन मिलनी ही है, दूसरों को क्यों न मिले, इसके लिए अपनी बाबूगिरी का पूरा उपयोग कर रहे हैं. आपने भी गौर किया होगा कि हमारे यहां युवा शक्ति की चर्चा बहुत होती है. इसमें कोई बुराई भी नहीं है.
परंतु इस क्रम में उनकी अनदेखी न हो जिन्होंने जीवन भर देश के लिए दिन-रात एक किया. बुजुर्गों की आबादी भी तेजी से बढ़ रही है, इसलिए उनके अनुकूल स्थितियां बनानी होंगी. बुजुर्गों को अलग-थलग या उपेक्षित तो नहीं छोड़ा जा सकता. पिछले एक दशक में वरिष्ठ नागरिकों की संख्या में 39.3 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है, और देश की आबादी में इनकी हिस्सेदारी वर्ष 2001 के 6.9 प्रतिशत की तुलना में बढ़कर वर्ष 2011 में 8.3 प्रतिशत हो गई है.बेशक, सरकार के अनेक सामाजिक सुरक्षा के कार्यक्रम चल रहे हैं, लेकिन इनके लाभार्थी सीमित ही हैं. इनमें असंगठित क्षेत्र के बहुत कम कामगार या उनके परिवार लाभार्थियों में शामिल हो पाते हैं. गैर-संगठित क्षेत्र के श्रमिकों और उनके आश्रितों को बीमारी, अधिक उम्र, दुर्घटनाओं या मृत्यु के कारण बेहद गरीबी का सामना करना पड़ता है.
आप गांव-देहात या छोटे शहरों को छोड़िए, अपने आसपास रहने वाले बुजुर्गों से उनकी आय के संबंध में बात कर लीजिए. पाएंगे कि 10 में से 8 की नियमित आय का कोई स्रोत नहीं है. वे पूरी तरह से परिवार पर निर्भर हैं. चूंकि आर्थिक रूप से स्वावलंबी नहीं है, इसलिए उन्हें घर में भी दुत्कार ही मिल रही है और बाहर भी. किसी शख्स के दो या तीन पुत्र हैं, तो वे उनके पास बारी-बारी से रहने के लिए अभिशप्त हैं. बहुत ही कम ऐसे परिवार हैं, जहां बुजुर्गों को इज्जत से रोटी नसीब है. बड़े शहरों में ओल्डएज होम खुल रहे हैं. लेकिन इनमें वे ही रह सकते हैं, जिनकी माली हालत ठोस है. यदि वे बीसेक हजार रु पया हर माह खर्च करने के लिए तैयार हैं तब तो उनकी गुजारा है, वरना नहीं. बुजुर्गों या यों कहें कि 60 साल से अधिक उम्र की आबादी के संबंध में कुछ चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए हैं. 2011 की जनगणना के अनुसार, देश में डेढ़ करोड़ बुजुर्ग बिल्कुल अकेले जीवन व्यतीत कर रहे हैं.
इनमें तीन-चौथाई आबादी औरतों की है. ग्रामीण भारत के 32.5 फीसद घरों में कम से कम एक बुजुर्ग तो है ही. जबकि शहरी भारत में यह संख्या 29 फीसद ही रह जाती है. ग्रामीण भारत में 28 लाख महिलाएं अकेले रह रही हैं. शहरों में यह संख्या 8.2 लाख है. जरा सोचिए, इन अकेले जीवन यापन करने वाले बुजुर्गों का जीवन कितना कठिन होगा. यह तो मैं नहीं कह रहा कि देश इन बुजुर्गों को लेकर संवेदनहीन रुख अपनाए हुए है. इनकी सुख-सुविधा के लिए अनेक तरह के कदम भी हाल के वर्षो में उठाए गए हैं. लेकिन आवश्यकता इस बात की है कि सरकार और समाज हरेक बुजुर्ग के प्रति संवेदनशील रवैया अपनाए. सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों में देश के दूर-दराज क्षेत्रों में रहने वाले बुजुर्गों को कम से कम छत, दवाई, भोजन की व्यवस्था तो अवश्य ही हो.
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