एड्स : कलंक न समझें इसे

Last Updated 01 Dec 2017 04:18:15 AM IST

पिछले दिनों जारी संयुक्त राष्ट्र (यूएन) की एक रिपोर्ट के अनुसार बीते एक दशक के दौरान पूरी दुनिया में एड्स की वजह से जान गंवाने वालों लोगों की संख्या में 50 फीसद से अधिक की कमी दर्ज की गई है.


एड्स : कलंक न समझें इसे

साल 2005 में इस जानलेवा बीमारी से 19 लाख लोगों की मौत हुई थी, जबकि 2016 में यह आंकड़ा घटकर 10 लाख पर आ चुका है. रिपोर्ट के मुताबिक पहला मौका है, जब इस संख्या में कमी दर्ज की गई है. साल 1980 से अब तक तकरीबन साढ़े सात करोड़ लोग इस बीमारी से संक्रमित हो चुके हैं. इनमें से तकरीबन आधे मरीजों को अपनी जान गंवानी पड़ी है.
रिपोर्ट के मुताबिक एड्स की वजह से न केवल जान गंवाने वाले लोगों की संख्या में गिरावट दर्ज की गई है, बल्कि इससे संबंधित नये मामलों में भी कमी आई है. इसके अलावा, पहले के मुकाबले अब अधिक लोगों को बेहतर इलाज की सुविधा हासिल हो रही है. 2016 में एड्स के 18 लाख नये मामले सामने आए जबकि 1997 में यह आंकड़ा करीब 35 लाख था.  इसके अलावा, बीते साल एड्स पीड़ित कुल 3.67 करोड़ लोगों में से 1.95 करोड़ मरीजों को इलाज की सुविधा मिली थी. विभिन्न समुदायों और परिवारों की कोशिशों की वजह से एड्स के मामलों को पीछे धकेलन में सफलता हासिल हुई है.
यूएन की रिपोर्ट के तहत साल 2020 तक 90 फीसद एड्स संक्रमित मरीजों को बीमारी से जुड़ी उनकी स्थिति के बारे में जानकारी देने और इनमें से 90 फीसद (कुल मरीजों का 81 फीसद) तक इलाज की सुविधा पहुंचाने का लक्ष्य रखा गया है. फिलहाल, कुल संक्रमित मरीजों में से केवल 70 फीसद को ही अपनी स्थिति के बारे में जानकारी हासिल है, और इनमें से 77 फीसद को ही सही इलाज की सुविधा मिल पा रही है.

एड्स खतरनाक बीमारी है जो इंसान को जीते जी मार देती है. असुरक्षित यौन संबंधों, दोषपूर्ण रक्त बदलने या अन्य कारकों से होने वाला यह रोग बड़े पैमाने पर लोगों की जिंदगियों को प्रभावित करता है. एचआईवी यानी ह्यूमन इम्यूनोडिफीशिएंसी वायरस मानव की रोग प्रतिरोधक शक्ति को कम करने वाला विषाणु है. यह एक रेट्रोवायरस है जो मानव की रोग प्रतिरोधक प्रणाली की कोशिकाओं (मुख्यत: सीडी 4 पॉजिटिव टी) को संक्रमित कर उनके काम करने की क्षमता को नष्ट या क्षतिग्रस्त कर देता है. यह विषाणु मुख्यत: शरीर को बाहरी रोगों से सुरक्षा प्रदान करने वाले रक्त में मौजूद टी कोशिकाओं (सेल्स) और मस्तिष्क की कोशिकाओं को प्रभावित करता है, धीरे-धीरे उन्हें नष्ट करता रहता है. कुछ सालों के बाद (6 से 10 वषर्) यह स्थिति हो जाती है कि शरीर आम रोगों के कीटाणुओं से भी अपना बचाव नहीं कर पाता. तरह-तरह के संक्रमण से ग्रसित होने लगता है, इस अवस्था को एड्स कहते हैं.
एचआईवी का फिलहाल कोई मुकम्मल इलाज नहीं है, लेकिन इसके इलाज के शोध पर काफी सकारात्मक नतीजे आए हैं. निकट भविष्य में इसका इलाज संभव हो सकता है. एक बार शरीर में आ जाने के बाद वायरस ताउम्र शरीर में रहता है. एड्स हो जाने के बाद इससे छुटकारा पाने की दुनिया में अभी कोई दवा नहीं बन पाई है. जो भी दवाएं बनी हैं, वे सिर्फ  बीमारी की रफ्तार कम करती हैं, उसे खत्म नहीं करतीं. लेकिन ये इतनी महंगी हैं कि आम आदमी की पहुंच से बाहर हैं. चिकित्सा वैज्ञानिक अब एड्स के वैक्सीन को विकसित करने पर काम कर रहे हैं. यह वैक्सीन भी इतना सस्ता नहीं होगा कि यह सभी के पहुंच में हो.
पूरी दुनिया में सभी स्थानीय सरकारें एचआईवी एड्स से बचे रहने के बारे में जागरूकता अभियान छेड़े हुए हैं.  सभी सरकारें, स्वयंसेवी संस्थाएं, सामाजिक कार्यकर्ता और स्वयंसेवक लोगों को बताने में पूरी ताकत लगा रहे हैं कि यह बीमारी छुआछूत से नहीं फैलती. पीड़ितों के साथ सद्भावना से पेश आना चाहिए. लेकिन इसके ठीक उलट लोग एड्स से पीड़ित व्यक्ति को घृणा से देखते हैं. उससे दूरी बना लेते हैं. एचआईवी संक्रमित व्यक्ति का राज खुलने पर उसके माथे पर कलंक का टीका लग जाता है. यह कलंक इस बीमारी से भी बड़ा होता है. पीड़ित को घोर निराशा का जीवन जीते हुए अपने मूलभूत अधिकारों और मौत के अंतिम क्षण तक अच्छी जिंदगी जीने से वंचित होना पड़ता है. वक्त आ गया है कि हम एचआईवी एड्स को कलंक मानने की सोच और आचरण में बदलाव लाने का काम करें. एचआईवी एड्स से जुड़ी चर्चा, प्रतिबंधात्मक उपाय और शोध का कार्य करते रहने के दौरान इससे जुड़े कलंक को खत्म करने के मुद्दे को भी शामिल करना चाहिए.

शशांक द्विवेदी


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