हादिया मामला- व्यक्तिगत आजादी और पितृसत्ता

Last Updated 30 Nov 2017 05:54:45 AM IST

आजादी के सत्तर साल बाद एक देश के रूप में भारत हर लिहाज से बेहतर कर रहा है.


हादिया मामला- व्यक्तिगत आजादी और पितृसत्ता

भारत के विश्व की प्रमुख ताकत के रूप में उभरने पर हर भारतीय का सीना गर्व से चौड़ा है. लेकिन जब उदारवादी लोकतंत्र की सफलता का आकलन व्यक्तिगत आजादी और व्यक्तिगत अधिकारों की कसौटी पर किया जाता है, तो पता चलता है कि हम तो विपरीत दिशा में ही चल पड़े हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तक को राष्ट्रद्रोह का नाम दिया जा रहा है. हालांकि सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि शब्दों में व्यक्त मत को राष्ट्रद्रोह की संज्ञा नहीं दी जा सकती. किताबें प्रतिबंधित की जा रही हैं, फिल्में सेंसर की जा रही हैं, और ऐसा इसलिए कि व्यक्ति की स्वतंत्रता में हमारा विश्वास नहीं रह गया है. आधार कार्ड के नाम पर निजता के अधिकार का हनन हो रहा है, और अब तो अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह करना भी खतरे से खाली नहीं रहा. इसे ऐसी आतंकी गतिविधि करार दिया जा सकता है, जिसके लिए एनआईए द्वारा जांच की जरूरत आन पड़े.

व्यक्तिगत स्वतंत्रता नागरिक स्वतंत्रताओं का मूल तत्व है. निजता संबंधी अपने फैसले में शीर्ष अदालत की नौ-सदस्यीय पीठ ने खान-पान, परिधान, धर्म आदि से जुड़ीं व्यक्तिगत स्वायत्तता का समर्थन किया है. किसी अन्य धर्म को अंगीकार करने या अपनी पसंद के किसी  व्यक्ति के साथ विवाह करना व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अभिन्न अंग है, और किसी सरकार या अन्य किसी को भी कोई मतलब नहीं होना चाहिए. इसलिए अनुमय व्यक्तिगत कानून के तहत दो वयस्कों द्वारा किए गए विवाह की वैधता पर अदालतें विचार नहीं कर सकतीं.

लव जिहाद पर यह पूरी चर्चा ही राजनीति से प्रेरित है, और निहित उद्देश्यों से की जा रही है. लव जिहाद हौवे से ज्यादा कुछ नहीं है. यह हमारी न्यायिक प्रणाली का दुखद पहलू है कि पहले तो केरल उच्च न्यायालय ने हादिया के विवाह को गैर-कानूनी घोषित कर दिया और अब सुप्रीम कोर्ट ने हादिया के इन बेलाग बयानों के बावजूद कि उन्होंने इस्लाम धर्म अंगीकार कर लिया है, कि वह अपने पति के साथ रहना चाहती हैं; उन्हें अपने पति के साथ जाने की अनुमति नहीं दी. हादिया 26 वर्ष की हैं, और उन्हें अब हॉस्टल में रहना पड़ेगा.

सुप्रीम कोर्ट के आदेश में राहत की बात इतनी भर है कि अब हादिया को उनके पिता से मुक्त करा लिया गया है. कितने दुख की बात है कि कॉलेज के प्रधानाचार्य हादिया को उसके पति से मिलने नहीं दे रहे. किस कानून के तहत हादिया किसी अजनबी से नहीं मिल सकती. हादिया ने सर्वोच्च न्यायालय को बताया कि वह अपने पिता के सबसे निकट है पर पिता अपनी ही पुत्री को आतंकवादी बता रहे हैं. सच तो यह है कि भारतीय कानून विभिन्न धर्मो के व्यक्तियों को आपस में वैवाहिक संबंध बनाने की अनुमति देता है. अंतर-धार्मिक विवाह विशेष विवाह अधिनियम के तहत किये जाते हैं. अजीब है कि केरल उच्च न्यायालय ने लड़की और लड़के के बयान सुनने के पश्चात पहले तो संतोष जताया कि लड़की को बेजा प्रभाव में नहीं लिया गया, लेकिन दोनों के बीच विवाह की बात पता चलते ही विपरीत रुख अपना लिया. यहां विवाह लड़की की सहमति के बाद किया गया. इसलिए लव जिहाद का मामला नहीं है.

केरल उच्च न्यायालय का फैसला पितृसत्तात्मकता को दर्शाता है, क्योंकि यह मानता है कि महिलाओं को फुसलाया जा सकता है. इसका अर्थ यह हुआ कि हम अपनी महिलाओं को अपने निजी फैसले लेने के काबिल नहीं समझते. यह साफ-साफ समानता के अधिकार की अवहेलना है. फिर, किसी विवाह, दो वयस्कों के बीच हुआ हो तो, की वैधता पर कोई उच्च न्यायालय फैसला नहीं कर सकता. इसके अलावा, किसी याचिका की अमलदारी पर तो ऐसा फैसला नहीं दिया जा सकता. किसी लड़की ने दूसरे धर्म के व्यक्ति से विवाह कर लिया हो तो उसके पिता के किसी अधिकार का हनन हुआ नहीं माना जा सकता. दुर्भाग्य से शीर्ष अदालत ने 27 नवम्बर, 2017 के  अपने आदेश में एक बार फिर से पितृसत्तात्मकता को ही पुष्ट कर दिया.



दशकों पूर्व अपहरण के एक मामले में जहां एक अवयस्क लड़की किसी लड़के के साथ लापता हो गई थी, अदालत ने इस आधार पर लड़के को दंडित करने से इनकार कर दिया था कि लड़की मर्जी से लड़के के साथ गई थी, और अपने तई फैसले लेने की उसमें समझ थी. मौजूदा मामले में केरल उच्च न्यायालय, जिसने अनेक बार लड़की की बात सुनी और अनेक बार कहा कि वह किसी व्यक्ति की दुर्भावना की शिकार नहीं थी, या किसी तरह की अवैध गिरफ्त में नहीं थी, लड़की द्वारा एकाएक मुस्लिम से विवाह कर लेने पर संशय में पड़ गया और इस मामले को 'लव जिहाद' मानने लगा क्योंकि निकाहनामा और पंचायत विवाह पंजीकरण संबंधी आवेदन में लड़की के नाम में कुछ त्रुटि थी, और लड़के के खिलाफ कुछ आपराधिक मामले लंबित थे और उसकी मां खाड़ी देश में कार्य करती है और वह 'लड़की को देश से बाहर भेज देगा.' इस बात पर भी ध्यान नहीं दिया कि लड़की ने पासपोर्ट के लिए आवेदन तक नहीं किया है. आदेश में कहा गया है कि उसे पहले अपनी इंटर्नशिप पूरी करनी होगी और माता-पिता की सहमति के बिना उसके विवाह पर नाखुशी जतलाई. हमारे देश में लड़का-लड़की अपनी मर्जी से शादी करें या अपने गांव में विवाह करें तो उन्हें ऑनर किलिंग के तहत मार दिया जाता है. खाप पंचायत उनके विरुद्ध फैसले देती हैं.

इस प्रकार के मंतव्य केवल पितृसत्तात्मकता के परिचायक हैं. ऐसे तो उन लोगों का व्यक्तिगत जीवन ही खतरे में पड़ जाएगा जो अपने माता-पिता या गांव के बड़े-बुजुर्गों की सहमति के बिना अन्य धर्म या अन्य जातियों में विवाह करने चाहते हैं. हैरत की बात है कि उच्च न्यायालय ने लड़की के कथन की सत्यता की पुष्टि किए बिना उसके पिता की कही हर बात को माना और लड़की को उसके संरक्षर में सौंप दिया. लड़की को 'नासमझ' समझा जाना दुखद है. धर्मातरण निहायत निजी मामला है. ऐसा कि जिससे सरकारी अधिकारियों से कुछ लेना देना नहीं होना चाहिए. इस बाबत चर्चाओं को आतंकवाद से जोड़ा जाना उचित नहीं जान पड़ता. तब तक तो कतई नहीं जब तक कि ऐसा कोई अध्ययन न किया जाए जिससे साबित हो जाए कि ऐसा होता ही है. अलग-अलग मामलों के आधार पर इस मुद्दे का बढ़ा-चढ़ा कर सामान्यीकरण करने से हमें बचना चाहिए. अजीब अंदाज में केरल उच्च न्यायालय ने इस मामले को लव जिहाद के रूप में देखा क्योंकि ऐसा ही एक मामला उसके समक्ष लंबित है. केरल के इस फैसले को बिना विलंब किए शीर्ष अदालत को निरस्त कर देना चाहिए था. 

फैजान मुस्तफा


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