नजरिया : जीतने का यह भी तरीका
नीतीश कुमार को एनडीए की झोली में लाकर किंगमेकर अमित शाह ने खुद को किंगमेकर कहते रहे लालू प्रसाद को न सिर्फ कड़ी पटखनी दी है, बल्कि अपने किंग नरेन्द्र मोदी के लिए एक हार को भी जीत में बदल दिया है.
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इसके साथ ही मोदी-शाह की जोड़ी ने पूरे हिंदुस्तान में भगवा परचम लहरा दिया. बस, बिहार और दिल्ली में मिली मात इस जोड़ी के यश को कम कर रही थी.
राजनीति में कहते हैं कि टाइमिंग जबरदस्त होनी चाहिए. जब यह सही होती है, तो गेंद आसमान में निश्चित छक्के बनकर उड़ती है, और जब गलत होती है, तो गेंद विकेट उड़ा ले जाती है. महागठबंधन बनकर लालू-नीतीश की गेंद तब अमित शाह-मोदी का विकेट बिहार में उड़ा ले गई थी. शाह-मोदी की जोड़ी ने वक्त बदलने का इंतजार किया. एक समय आया, जब अंपायर बने लालू अपने डिप्टी सीएम बेटे के लिए सीएम नीतीश को रनआउट कराने की चाल चल रहे थे.
नीतीश कुमार ने वक्त का रु ख भांपा, अंपायर के मंसूबे को पढ़ा, सामने डिप्टी सीएम का चेहरा भी उन्हें बहुत कुछ बता रहा था, और सट्टेबाजों की गलियां भी उन्हें संकेत कर चुकी थीं कि विरोधी दलों से मिलकर लालू नाम का यह अंपायर किसी क्षण अपनी उंगली उठा सकता है, और उन्हें रनआउट करा सकता है. बस, नीतीश ने राजनीति के उन्हीं ‘सट्टेबाजों’ से संपर्क साधा, शाह से संवाद बनाया और ऐसे समय पर हिट विकेट हो गए, जिसके बाद मैच टाई था. र्थड अंपायर यानी राज्यपाल अपना था. स्कोरर के रूप में स्पीकर अपने थे. लिहाजा, जीत नीतीश कुमार की तय थी, तय हो गई, लेकिन यह जीत वह शाह-मोदी को सुपुर्द कर चुके थे, जिन्होंने उनको अभयदान दे दिया था यानी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही रहेंगे-यह तय हो चुका था.
राजनीति में कामयाबी की लंबी होती फेहरिस्त से आज मोदी-शाह की जोड़ी नाबाद और अजेय जोड़ी बन चुकी है. लोक सभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के ‘मैन ऑफ द मैच’ रहे शाह को इनाम के तौर पर पीएम बनने के बाद मोदी ने उन्हें बीजेपी का सिरमौर बनवा दिया. उसके बाद से शाह ने हरियाणा, महाराष्ट्र, जम्मू-कश्मीर, झारखंड और असम में बीजेपी का परचम लहराया. नोटबंदी के बावजूद चंडीगढ़ नगर निगम, बीएमसी चुनाव और ओडिशा समेत कई जगहों पर कमल खिलाए. यह शाह-मोदी की जोड़ी का ही कमाल है कि14 साल बाद यूपी में बीजेपी की वापसी हुई. उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में भी उसकी सरकारें बनीं. यहां तक कि दिल्ली एमसीडी चुनाव में भी बीजेपी ने आम आदमी पार्टी (आप) और कांग्रेस की बोलती बंद कर दी.
हार को जीत में कैसे बदला जाता है, इसे देखना हो तो कोई शाह-मोदी की जोड़ी और बिहार की राजनीति को देख ले. नीतीश कुमार कभी बिहार के मुख्यमंत्री के तौर पर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ पीएम मैटीरियल माने जाते थे. विकास के गुजरात मॉडल के साथ-साथ बिहार मॉडल की भी चर्चा होती थी.
बीजेपी में भी एक धड़ा था, जो पीएम के उम्मीदवार के तौर पर नीतीश को पसंद करता था. लेकिन इस तबके को तब नीतीश ने नाराज कर दिया था, जब महज मोदी-नीतीश की साझा तस्वीर का विज्ञापनों में इस्तेमाल होने पर नीतीश ने गहरी नाराजगी जताई थी, और अपने घर पर दावत देकर भी बीजेपी नेताओं को लौटा दिया था. तब खुद मोदी और आडवाणी जैसे नेता भी पटना में ही मौजूद थे. गठबंधन सरकार में होकर भी बीजेपी खून का घूंट पीकर रह गई थी. हद तो तब हो गई जब नीतीश ने नरेन्द्र मोदी को बीजेपी का पीएम उम्मीदवार घोषित करने पर बीजेपी से रिश्ते तोड़ते हुए उसे सरकार से बाहर कर दिया था. तब नीतीश ने गुजरात दंगे की घटना और नरेन्द्र मोदी का जिक्र अल्पसंख्यक विरोधी के तौर पर करते हुए इसे अपने फैसले की वजह बताई थी.
लोक सभा चुनाव में शाह-मोदी की जोड़ी जीत गई और नरेन्द्र मोदी पीएम बन गए तो नीतीश कुमार ने नैतिकता के आधार पर मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. जीतन राम मांझी सरकार को वे पर्दे के पीछे से चलाने लगे. मतभेदों के बीच बीजेपी ने जीतन राम मांझी की नीतीश के खिलाफ मदद की, उनकी सरकार को गिराने की कोशिश की. मगर महागठबंधन बनाकर नीतीश कुमार ने एनडीए का विकेट गिराया और अपनी जीत सुनिश्चित की. लालू के बेटों के साथ बिहार में सरकार बनाई. लेकिन बीते तीन साल के दौरान महागठबंधन के अंदरूनी दबावों ने नीतीश को झुकाया. बीजेपी नेता अमित शाह भी अड़े नहीं, झुके हुए नीतीश कुमार की भावना सहलाने लगे, उन्हें दुलारने लगे. नतीजा यह हुआ कि नीतीश कुमार के मन से अल्पसंख्यकों के लिए जो मोदी के नाम पर भय था, उससे उनका ध्यान हट गया. नोटबंदी की तारीफ से लेकर बेनामी संपत्ति कानून बनाने की वकालत तक नीतीश ने अपनी राजनीति का ध्यान बीजेपी के बजाय लालू और उनके परिवार के खिलाफ सियासत की ओर कर लिया. बीजेपी ने भी उनका साथ दिया. और इस तरह सियासत की बदली बयार के बीच दोनों एक-दूसरे के करीब आते गए.
यह शाह-मोदी की युगलबंदी की सफलता है कि नीतीश कुमार जैसा धुर विरोधी भी आज उनके पीछे लामबंद है. चुनौती देना तो दूर लंबे समय तक अपनी कुर्सी से आगे की सोच भी नहीं सकेंगे नीतीश. 27 मई को संपादकों के साथ बैठक में अमित शाह इसका संकेत दिया था. इसमें मैं भी मौजूद था, जहां चर्चा के दौरान अमित शाह ने कहा था कि नीतीश कुमार ने यह मान लिया है कि भले ही वह पीएम नहीं बन सकें, लेकिन सीएम तो बने रहें. इसलिए उनकी सियासत इसी रूप में विकसित हो रही है. यह संकेत राजनीतिक गलियारे में समझने के लिए काफी था कि बीजेपी और जेडीयू के बीच कुछ पक रहा है. जिन्हें शुबहा था, उन्होंने वक्त के साथ या फिर वक्त बीतने के बाद इसे माना.
यह सच है कि नीतीश ने शाह-मोदी की जोड़ी को मुस्कुराने का मौका दिया, लेकिन यह भी सच है कि बार-बार कुछ खोने के लिए ही नीतीश कुर्बानी क्यों देते रहते? डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बनाने के लिए जो साजिशें रची जा रही थीं, जेडीयू को तोड़ने की और यहां तक कि बीजेपी से समर्थन लेने की भी जो कोशिशें पर्दे के पीछे से हुई, उन्हें देखते हुए नीतीश को यह सोचने के लिए मजबूर होना पड़ा कि पीएम की कुर्सी से क्यों न समझौता कर लिया जाए ताकि सीएम की कुर्सी हमेशा के लिए बनी रहे. नीतीश की विवशता को समझकर शाह-मोदी की जोड़ी ने जो उन्हें थामने का काम किया है, वही उनकी जीत की वजह है. वजह चाहे जो हो, अमित शाह ने बीजेपी को देश की सबसे बड़ी पार्टी, देश के सबसे अधिक राज्यों में शासन करने वाली पार्टी और देश के सबसे बड़ी जनसंख्या और क्षेत्रफल वाले राज्यों में सत्ता दिलाई है. ऐसे में बीजेपी अध्यक्ष अगर राज्य सभा में पहुंचकर दिल्ली की गद्दी पर नम्बर दो बनने की तमन्ना रखते हैं, तो न यह गलत है, और न ही यह कहना गलत होगा कि इसमें नीतीश कुमार की भूमिका भी कम नहीं है.
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