कावड यात्रा बदलाव के दौर में
श्रावण मास की कांवड़ यात्राओं का तीव्र क्रम तकरीबन समापन की ओर है. दरअसल, सावन का यह पूरा महीना भगवान शिव की भक्ति और आराधना एवं समर्पण से जुड़े सनातन धार्मिक इतिहास का एक हिस्सा है.
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इस मास में शिवलिंग पर गंगाजल से जलाभिषेक करना शिव भक्ति की प्रमुख गोचर गतिविधि मानी जाती है. इस क्रिया को अमली जामा पहनाने के लिए भक्तगण देश की विभिन्न पवित्र नदियों से जल इकठ्ठा करके प्रसिद्ध शिवलिंगों पर जलाभिोक करते हुए गृह स्थल पर जाकर अपनी कांवड़ यात्रा सम्पन्न करते हैं. कांवड़ यात्रा का इतिहास बताता है कि जो शिव भक्त कांवड़िया बनकर अपनी यात्रा तय करते हैं, वे जप, तप व व्रत इन तीनों त्यागमयी वृत्तियों को एक साथ पूर्ण करते हैं. अत: स्पट है कि शिव भक्त अपनी इस यात्रा के दौरान मंत्रों के उच्चारण के माध्यम से शारीरिक कष्टों को सहन करते हुए जलाभिषेक तक अन्न ग्रहण न करने का व्रत पूर्ण करते हैं. अत: कांवड़ यात्रा में हिस्सा लेने वाले शिव भक्तजनों से अपने अंत:करण को शुद्ध रखने के साथ-साथ उनसे शांत व सहनशील बनने की अपेक्षा भी की जाती है.
इतिहास साक्षी है कि इस कांवड़ परम्परा की पृष्ठभूमि में लोगों को पवित्र नदी, पहाड़ व पवित्र स्थानों की प्राकृतिक महत्ता को समझाते हुए प्राकृतिक संरक्षण का संदेश देना भी था. साथ ही चारों दिशाओं के लोगों में धार्मिक आस्थाओं की पूर्ति के साथ-साथ देश के लोगों से सामाजिक-सांस्कृतिक संवाद स्थापित करना भी था. इतना ही नहीं इस कांवड़ यात्रा के माध्यम से सावन मास में जहां एक ओर भगवान शिव की आस्था के प्रति समर्पण भाव की अभिव्यक्ति थी, वहीं इसमें यह संदेश भी समाहित था कि विरोधियों द्वारा विषवमन करने के बाद भी हमारी सहनशीलता और समाधान कमजोरी का नहीं, बल्कि हमारी शक्ति का प्रतीक रहा है. उचित अर्थ में शिव की इस परम्परा का संरक्षण करने एवं संपूर्ण देश में इस सामाजिक व धार्मिक दर्शन के विस्तार के लिए ही कांवड़ यात्राएं की जाती रहीं हैं.
सच्चाई यह है कि देश में हर वर्ष कांवड़ियों की संख्या लगातार बढ़ रही है. अकेले श्रावण मास में देश में करोड़ों कांवड़िये गौमुख, नीलकंठ व हरिद्धार से पवित्र जल लाकर कांवड़ यात्रा पूर्ण करते हैं. कांवड़ यात्रा के धार्मिक बाजार से जुड़े आंकड़े बताते हैं कि पिछले साल अकेले हरिद्वार आने वाले कांवड़ियों की संख्या तीन करोड़ को पार कर गई थी. इस बार इनकी संख्या चार करोड़ के पार जाने का अनुमान है. अवलोकन यह भी बताते हैं कि हरिद्वार में इस कांवड़ के दिनों में प्रति वर्ष 500 करोड़ रुपयों का कारोबार होता है. और भी खास बात यह है कि यहां कांवड़ की 1500 सीजनल दुकानें हैं, जिनसे डेढ़ लाख लोगों को रोजगार मिला हुआ है. परंतु तकलीफदेह यह है कि हरिद्वार के इतने बड़े मेले को उत्तराखंड सरकार ने अधिसूचित मेले की श्रेणी तक में शामिल नहीं किया है.
इस कांवड़ यात्रा में एक और खास बात यह भी देखने में आ रही है कि इसमें 10 वर्ष से 45 वर्ष तक के बालकों के साथ में युवाओं व युवतियों का रुझान अधिक बढ़ा है. इस कांवड़ यात्रा में जातियों का समीकरण देखने से पता चलता है कि इसमें उच्च जातियों का प्रतिशत काफी कम है. सामाजिक-आर्थिक आंकड़ें बताते हैं कि वर्तमान में मध्यम एवं निम्न वगरे के बीच कांवड़ यात्रा का आकषर्ण अधिक दिखाई पड़ रहा है. आज धार्मिक बाजार का भगवा ग्लैमर कांवड़ियों को अपनी ओर खींच रहा है. लिहाजा धर्म से ओत-प्रोत बाजार का रुझान तो यही चाहेगा कि ऐसे धार्मिक पर्व पर खूब भीड़ बढ़े और नियम व कायदे कानूनों की कमजोरी लगातार बनी रहे. इस सच्चाई को प्रस्तुत करने में कोई हिचक नहीं है कि कांवड़ यात्रा के भीड़ के मनोविज्ञान के सामने शिव भक्ति का दर्शन कमजोर पड़ता नजर आ रहा है. धार्मिक आस्थाओं को बाजार ने इन कांवड़ यात्राओं को भी बाजारू बनाने में कोई कसर उठा कर नहीं रखी.
श्रावण मास कांवड़ियों के लिए श्रमसाध्य मास है. जहां इन राजमार्गों पर सभ्य व अनुशासित तरीके से चलने का दायित्व कांवड़ियों का है, वहीं इन कांवड़ियों की यात्रा को सुगम बनाने की जिम्मेदारी भी स्थानीय प्रशासन की है. भारतीय संदर्भ में दुर्खीम के अनुसार धर्म एवं धार्मिक आस्थाएं केवल अफीम का ही कार्य नहीं करतीं हैं. ये हमारी धार्मिक कर्तव्यों की संपूर्ति की ओर संकेत भी करती हैं. निश्चय ही कांवड़ यात्रा भगवान शिव के प्रति हमारी सनातन धार्मिक आस्था और त्यागमयी संस्कृति का एक प्रतीक है. इसको संयम व शालीनता के साथ जीने से ही कांवड़ यात्रा की पवित्रता बनी रह सकेगी.
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