प्रसंगवश : शिक्षा में कौशल

Last Updated 30 Jul 2017 04:36:24 AM IST

इस समय ‘कौशल’ को लेकर शिक्षा के क्षेत्र में खासी धूम मची हुई है. देश की सामथ्र्य के विस्तार हेतु कौशल और क्षमता पर बल देना निश्चय ही आवश्यक है.


प्रसंगवश : शिक्षा में कौशल

आज यह चुनौती इसलिए भी गहराती जा रही है कि अब भारत में शिक्षित अर्थात डिग्रीधारी बेरोजगारों की संख्या में तेजी से इजाफा हो रहा है. यह कठिनाई न केवल प्रौद्योगिकी, चिकित्सा और प्रबंधन आदि जैसे तकनीकी के क्षेत्रों में है, बल्कि मानविकी और समाज विज्ञान जैसे परंपरागत विषयों में भी है. शायद शिक्षा की कुशलता ही संदिग्ध हो रही  है. कुल मिलाकर इस चिंतनीय अवस्था का सीधा संबंध सामान्य शिक्षा केंद्रों में शिक्षण और मूल्यांकन की घटती गुणवत्ता और संदिग्ध होती विसनीयता से है. ऐसे में कौशल शिक्षा के विस्तार की दिशा में सार्थक और परिणामोन्मुख कदम बढ़ाने के साथ हमें आवश्यक तैयारी भी करनी होगी. 

‘कुशलता’ किसी कार्य को उत्कृष्ट स्तर पर अच्छी तरह से संपादित कर पाने को कहते हैं. इसका सीधा संबंध ज्ञान को कार्य में रूपांतरित करने से है, जिसके बिना निपुणता नहीं आ सकती. दुर्भाग्य से ‘कौशल’ का एक रूढ़ अर्थ भी  है, जो समाज में प्रचलित हो गया है. उसे प्राय: मात्र शारीरिक कौशलों  से जोड़ कर देखा जाता है, और श्रम-साध्य शारीरिक कार्यों की प्रधानता वाले निम्न प्रतिष्ठा के व्यवसायों के लिए सुरक्षित रखा जाता है. यह एक भ्रामक विचार है क्योंकि शरीर हमारा सबसे सक्षम उपकरण है. वास्तविकता यह है कि जीवन में बुद्धि और शरीर दोनों के ही प्रशिक्षण की जरूरत पड़ती है. यह अलग बात है कि हम शरीर-श्रम को गिरी हुई नजरों से  देखने लगे. आम आदमी की नजरों में बाबूगिरी और साहबी की इज्जत बढ़ती गई. पढ़-लिख कर निकलने वाले स्नातक स्वयं को जीवन में टेबल और कुर्सी पर बैठे सरकारी मुलाजिम के रूप में देखने की छवि प्रिय लगने लगी. स्वयं पर विास घटता गया. आत्मनिर्भरता घटती गई. स्वावलंबन और स्वरोजगार के विकल्प की ओर ध्यान धीरे-धीरे कम होता गया.

उल्लेखनीय है कि भारत में ज्ञान और कर्म स्वभावत: जुड़े माने गए हैं. इन दोनों  के बीच में कोई भेद नहीं था क्योंकि जो करके दिखा पाता है वही जानकार होता है : ‘यस्तु क्रियावान पुरुष: स विद्वान’. ज्ञान और उस ज्ञान को कर्म में रूपांतरित करने के बीच सीधे संबंध की दरकार होती है क्योंकि इनके बीच कोई फांक नहीं होनी चाहिए. जैसे कोई अच्छा डाक्टर सिर्फ पुस्तक में दिए गए रोग के लक्षण ही नहीं जानता. मरीज को  रोगमुक्त कर स्वस्थ भी करता है. ऐसे ही एक अच्छा इंजीनियर एक बढ़िया भवन का निर्माण करता है. इन सबकी सेवा लेते समय कोई भी  व्यक्ति समझौता नहीं करना चाहता क्योंकि कुशलता से समझौता करने में खतरे की संभावना रहती है. कहते हैं-नीम हकीम खतरा ए जान. विचारणीय है कि देश की परिस्थितियों का आकलन कर महात्मा गांधी ने भारत के लिए ऐसी ही शिक्षा का सपना देखा था. अपनी ‘बुनियादी शिक्षा’ में शारीरिक श्रम को भी बराबर का महत्त्व दिया था, और बौद्धिक विकास के लिए अवसर देते हुए शारीरिक कौशलों में भी पारंगत होने के लिए व्यवस्था की थी.

बेरोजगारी और अकुशलता, दोनों जुड़े हुए हैं. भारत में कुशलता और हुनर घरों में परंपरा से एक पीढ़ी से दूसरी तक पहुंचते रहे हैं. औपचारिक शिक्षा में भी गुरु के साथ ज्ञान की दीक्षा पाते समय विद्यार्थी को सिर्फ  किताबी ज्ञान तक ही सीमित नहीं रखा जाता था. शिक्षा की प्रक्रिया के चार चरण होते थे : अध्ययन, मनन, प्रवचन और प्रयोग. यहां पर ज्ञान प्राप्ति और उसके उपयोग एक ही आयाम के दो छोर हैं, और कुशलता प्रयोग में परिलक्षित होती है. पढ़ाई आरंभ में गुरु से ज्ञान ग्रहण करने से शुरू होती है. उसके बाद छात्र मनन में आता है, जिसमें अध्ययन करने वाला  स्वयं विचार करता है, और खुद से प्रश्न करता है. तब बारी आती है उस ज्ञान को दूसरे व्यक्ति तक ठीक-ठीक पहुंचाने की जिसे प्रवचन कहा गया. अंत में ज्ञान की वास्तविक परीक्षा उसे प्रयोग में ला कर होती है. इस तरह ज्ञान पाने की राह में परिपक्वता संबंधित क्षेत्र में कौशल के विकास को अपने में समाविष्ट करती चलती है.  

आज जरूरत है कि शिक्षा में अध्ययन विषय से संबंधित कार्य का गहन प्रशिक्षण भी अनिवार्य रूप से शामिल हो. ऐसा करने से आजीविका  के अवसर भी बढ़ेंगे और छात्रों में आत्मविास भी आ सकेगा. वे  स्वरोजगार और स्वावलंबन की और बढ़ सकेंगे. ज्ञान कभी विद्यार्थी के ऊपर भार और बंधन नहीं होना चाहिए. वह तो उसे क्लेशों से मुक्ति दिलाने का राजमार्ग है : सा विद्या या विमुक्तये!

गिरीश्वर मिश्र
लेखक


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