परत-दर-परत : कश्मीर को मध्यस्थता चाहिए
फारूक अब्दुल्ला की गिनती कश्मीर के खलनायकों में होती है. वे लंबे समय तक कश्मीर के मुख्यमंत्री रहे.
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अपने पिता शेख अब्दुल्ला की तरह उनके मन में कभी द्वंद्व तो नहीं रहा कि कश्मीर की असली जगह हिंदुस्तान में है, या पाकिस्तान में. लेकिन सत्ता में रहते हुए उन्होंने कश्मीर और भारत के भावनात्मक एकीकरण का कोई प्रयास नहीं किया. पता नहीं क्यों मान लिया गया है कि कश्मीर में सारी जिम्मेदारी केंद्र सरकार की है. दरअसल, पहली जिम्मेदारी तो राज्य सरकार की ही है कि वह राज्य में ऐसा वातावरण बनाए जिसमें लोकतांत्रिक राजनीति और समाज चल सके. इस मामले में कश्मीर की सभी सरकारों ने निराश किया है. कश्मीर की जनता को भारत की ओर मोड़ने की कोई पुरजोर कोशिश नहीं की. फारूक इसका अपवाद नहीं हैं.
अंग्रेजी में एक कहावत चलती है, जिसमें शैतान पर व्यंग्य किया जाता है कि वह बाइबिल से कोट कर रहा है. मैं इस व्यंग्य के विरोध में हूं. मेरा मानना है कि शैतान को भी बाइबिल से कोट करने का पूरा अधिकार है. अच्छाई पर किसी का एकाधिकार नहीं हो सकता. बाइबिल में अच्छाई है, तो इसका हवाला शैतान क्यों नहीं दे सकता. बेहतर होता कि वह पहले स्वयं बाइबिल से कुछ सीखता, फिर दूसरों को सलाह देता कि वे भी इसी रास्ते पर चलें. लेकिन अगर वह सिर्फ दूसरों को उपदेश दे कर रहा है, तो इससे क्या उसके उपदेश की महत्ता कुछ कम हो जाती है?
कश्मीर के संदर्भ में फारूक को शैतान नहीं कहना चाहते. वे ऐसे हैं भी नहीं. लेकिन उनके एक सुझाव पर सभी ओर से उन्हें इतना दुरदुराया गया है जैसे वे शैतान हों और कश्मीर या भारत का भला नहीं चाहते. फारूक ने हाल में सुझाव दिया है कि कश्मीर विवाद के हल के लिए हमें किसी तीसरे देश की मध्यस्थता स्वीकार कर लेनी चाहिए.
कायदे से उनके सुझाव पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए था. पत्र-पत्रिकाओं में इस पर बहस भी चलाई जा सकती थी. लेकिन ऐसा लगता है कि नये विचारों को ग्रहण करने के मामले में हम पूरी तरह से असमर्थ हो चुके हैं, और पिटी-पिटाई लीक पर ही चलना चाहते हैं. इसीलिए मध्यस्थता के प्रस्ताव पर विचार किए बिना उसे डस्टिबन में फेंक दिया गया. कश्मीर में जो कुछ चल रहा है, वह निश्चय ही हमारा आंतरिक मामला है. कश्मीर भारत का अविच्छिन्न अंग है. पाकिस्तान से हम यही कहते भी रहे हैं. यही कारण है कि हम ने तय किया हुआ है कि कश्मीर पर पाक से बात नहीं करेंगे.
लेकिन इससे हम क्या इनकार कर सकते हैं कि कश्मीर भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद का एक विषय भी है? हमारी अपनी नजर में कोई विवाद नहीं है. हम मानते हैं कि जो आतंककारी कश्मीर में हिंसक हस्तक्षेप कर रहे हैं, उन्हें पाकिस्तान की प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष सहायता मिल रही है. पाकिस्तान समर्थन देना बंद कर दे तो आतंकवाद की धारा कुछ ही समय में सूखती नजर आएगी. पर पाकिस्तान की नजर में कश्मीर में हमारी स्थिति आक्रमणकारी की है. और सैनिक शक्ति के बल पर हमने उसे कब्जाया हुआ है.
उसका दावा है कि कश्मीर वस्तुत: पाकिस्तान का हिस्सा है, और भारत जिन्हें आतंकवादी कहता है, वे वास्तव में मुक्ति योद्धा हैं. जाहिर है, जब तक हम और पाकिस्तान अपने-अपने रु ख पर अड़े रहेंगे, तब तक कोई समाधान नहीं निकल सकता. सवाल है कि इस परिदृश्य को क्या हमें स्थायी मान लेना चाहिए और निराशा में हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाना चाहिए कि अब कुछ किया नहीं जा सकता. कश्मीर की नियति ही धू-धू कर जलने की है? भारत में ही नहीं, पाकिस्तान में भी ऐसे लोगों की संख्या बड़ी है, जो मानते हैं कि बातचीत से कश्मीर समस्या का हल निकाला जा सकता है. यह सही है कि दोनों देशों के बीच बातचीत होती ही रही है, लेकिन इससे समस्या टस से मस नहीं हुई है.
फिर भी बातचीत ऐसी प्रक्रिया है, जिसका कोई अंत नहीं हो सकता. आखिर, शांति के दो ही रास्ते हैं-युद्ध और संवाद. युद्ध भी कई बार हो चुका है, और सीमा पर शीत युद्ध तो चलता ही रहता है. युद्ध से रास्ता तभी निकल सकता है जब भारत पाकिस्तान को मटियामेट कर दे या पाकिस्तान भारत को. लेकिन यथार्थ में न यह हो सकता है, न वह. ऐसी सूरत में क्या हर्ज है अगर हम किसी ऐसे देश की मध्यस्थता स्वीकार कर लें जिसकी सदाशयता पर हमें संदेह न हो. वास्तव में मध्यस्थता रु की हुई बातचीत को खोलने का भी एक रास्ता है. एक ताकतवर रास्ता है क्योंकि एक मित्र देश के सामने दोनों पक्ष अपनी-अपनी बात रख सकते हैं, और उसे मौका दे सकते हैं कि कोई न्यायपूर्ण समझौता करा दे.
असली चीज है पहल और भारत तथा पाकिस्तान दोनों सरकारों की कमी रही है कि किसी और विकल्प के बारे में सोच ही नहीं पाते. मध्यस्थ यह भूमिका बखूबी निभा सकता है. हो सकता है मध्यस्थता सफल हो जाए. लेकिन मध्यस्थता विफल हो जाती है, तब? तब क्या? वर्तमान यथास्थिति बनी रहेगी अर्थात मध्यस्थता से कोई पक्ष कुछ खोने नहीं जा रहा. लेकिन पाकिस्तान मध्यस्थता को स्वीकार न करे, तब? तब हमारे लिए अच्छा ही होगा क्योंकि तब अंतरराष्ट्रीय बिरादरी को सोचने-समझने का मौका मिलेगा कि किस पक्ष की बात में दम है.
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