कोविंद : एक आश्वासन

Last Updated 24 Jun 2017 03:10:33 AM IST

भाजपा द्वारा रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित करते ही विपक्ष में खलबली मच गई है.


भाजपा द्वारा रामनाथ कोविंद राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार

भाजपा ने एक रणनीति के तहत कोविंद के नाम को आगे बढ़ाया है. एक तरफ वह विपक्ष से उम्मीदवार के नाम पर सहमति बनाने की वार्ता कर रही थी, तो दूसरी तरफ अपने उम्मीदवार के लिए दूसरी पार्टियों से समर्थन भी जुटा रही थी. कहना कठिन है कि भाजपा सहमति के प्रति गंभीर थी या नहीं, लेकिन उस दौरान विपक्ष भी अपने प्रत्याशी के नाम का खुलासा नहीं कर सका. यह बात समझ से परे है कि जब भाजपा के पास अपने प्रत्याशी को जिताने की क्षमता है, तो सहमति की बात क्यों चला रही थी?

कोविंद के दलित समुदाय से होने के कारण भाजपा ने विपक्ष से उनका एक मुद्दा पहली नजर में छीन लिया है. पिछले कुछ समय से भाजपा की दलित विरोधी छवि बन रही थी, या बनाई जा रही थी. भाजपा के लिए इस छवि से बाहर निकलना जरूरी था. भाजपा दलित प्रेमी हो या न हो, लेकिन राजनीति में जो दिखता है, वही चलता है. यानी राजनीति में प्रतीकों का अपना महत्त्व होता है. भाजपा ने विपक्ष को कोई मौका दिए बिना अपना प्रत्याशी पहले उतार दिया. अगर विपक्ष किसी दलित का नाम आगे बढ़ाता, तो इसका श्रेय उसके नाम जाता.

अब विपक्ष के सामने प्रश्न खड़ा हो गया है कि उनका विरोध करे, तो कैसे करे? बढ़ती दलित चेतना के कारण कोई भी पार्टी दलित विरोधी दिखना नहीं चाहती, इसलिए विपक्ष ने मीरा कुमार के रूप में एक दलित प्रत्याशी को मैदान में उतारा है. 2019 के लोक सभा चुनाव के मद्देनजर यह चुनाव काफी महत्त्वपूर्ण हो गया है. कहा जा सकता है कि यह चुनाव उसका पूर्वाभ्यास है. यह चुनाव मुद्दा ही नहीं, विपक्ष की एकता की भी परीक्षा लेगा. भाजपा या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कितनी भी लोकप्रियता बढ़ जाए, अकेले दम पर उनके लिए संपूर्ण विपक्ष की चुनौती का सामना करना आसान नहीं है. विभाजित विपक्ष से निपटना भाजपा के लिए सुविधाजनक होगा. हालांकि, आगामी लोक सभा चुनाव के समय वही परिस्थिति नहीं होगी, जो अभी राष्ट्रपति चुनाव में दिख रही है. लेकिन सामने आ रहे विपक्षी पार्टियों के अंतर्विरोध की अहमियत को नकारा भी नहीं जा सकता. राजग के बाहर की कुछ पार्टियों का समर्थन भाजपा को मिल चुका है.

क्या गारंटी उस समय भी कुछ ऐसे मुद्दे या परिस्थितियां सामने न आ जाएं, जिनसे विपक्ष की एकता कमजोर न हो जाए? अगर मोदी सरकार ने राम मंदिर पर संविधान के तहत कोई पहल कर दी तो क्या विपक्ष एकजुट होकर हिन्दू जनभावना के मद्देनजर उसका विरोध कर पाएगा? फिलहाल, भाजपा दलित समाज को आस्त करने की कोशिश कर रही है कि हिन्दुत्व के तहत उसका हित सुरक्षित है. इस फैसले का यह ऐसा सामाजिक पहलू है, जिस पर कथित धर्मनिरपेक्षतावादियों ही नहीं, कुछ कथित हिन्दुत्ववादियों में भी शिकायत का भाव है. कथित धर्मनिरपेक्षतावादियों, जिनमें कुछ दलितवादी भी हैं, की आलोचना यह है कि कोविंद अम्बेडकरवादी या दलित आंदोलनकारी नहीं हैं, या उनका जुड़ाव संघ परिवार से है. धार्मिक चश्मे से इस चुनाव को देखने वालों के लिए यह मुद्दा हो सकता है, अन्यथा आमजन की इसमें कोई खास दिलचस्पी नहीं है. अगर उनका संघ परिवार से जुड़ाव रहा भी है, तो यह कोई अपराध नहीं है. क्या संघ के होने के कारण वे दलित हितैषी नहीं थे, या राष्ट्रपति के रूप में सफल साबित नहीं होंगे?

क्या मीरा कुमार अम्बेडकरवादी या दलित आंदोलनकारी रही हैं? कहा जा सकता है कि उदार स्वभाव के कोविंद भाजपा के बजाय किसी कथित धर्मनिरपेक्ष पार्टी के उम्मीदवार होते तो वे योग्य दलित नेता माने और कहे जाते. दोनों ही स्थितियों में कोविंद तो एक ही होते. ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि दलित नेता के रूप में उनकी पहचान को नकारने की कोशिश क्यों हो रही है? क्या इसलिए कि वे हिन्दुत्व विरोधी नहीं हैं? हर नेता देशकाल की परिस्थितियों की उपज होता है, उसका प्रतिनिधि होता है. कोई जरूरी नहीं कि हर दलित नेता का विचार और कार्य एक ही हो. डॉ. भीमराव अम्बेडकर, जगजीवन राम और कांशी राम की राजनीति में कुछ अंतर था. कोविंद की भी अपनी कार्य-शैली है. बदलाव के दौर से गुजर रहे भारत को आज एक ऐसे राजनेता की आवश्यकता है, जो उसकी आत्मा का प्रतिनिधित्व करे. यह समय दलित समाज के लिए उत्सव मनाने का है. अगर कोविंद राष्ट्रपति बन जाते हैं, तो उम्मीद की जा सकती है कि समाज में गैर-दलितों में दलितों को स्वीकार करने की प्रवृत्ति बढ़ेगी.

सत्येंद्र प्रसाद सिंह
लेखक


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