राष्ट्रपति चुनाव : अलग दिखने का अवसर

Last Updated 24 Jun 2017 03:15:54 AM IST

राष्ट्रपति पद के लिए हो रहे चुनाव ने नीतीश कुमार को कांग्रेस और राजद से अलग दिखने का एक अवसर दे दिया है.


राष्ट्रपति चुनाव : अलग दिखने का अवसर

राजग के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद को मत देने की घोषणा करके जदयू ने इस अवसर का लाभ उठाया है. याद रहे कि ये दल गैर राजनीतिक कारणों से विवाद में हैं. जदयू जब अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में शामिल था, तब भी उसने  गठबंधन के समक्ष  दो शत्रे रखी थीं. एक तो संविधान की धारा-370 में कोई बदलाव नहीं होगा और दूसरा यह कि सामान्य नागरिक कानून लागू नहीं होंगे. 

बिहार में कांग्रेस-राजद-जदयू की जब मिली-जुली सरकार बनी तो कोई न्यूनतम साझा कार्यक्रम तय किया गया, ऐसी कोई खबर नहीं है.  पर आए दिन इन दलों के कुछ मझोले दर्जे के नेताओं के बीच विभिन्न मुद्दों पर परस्पर विरोधी बयान आते रहते हैं. पर हाल के दिनों में कांग्रेस और राजद के शीर्ष नेतृत्व के परिजन की निजी संपत्तियों को लेकर जो मामले सामने आ  रहे हैं, वे कुछ जदयू नेताओं के लिए असहज स्थिति पैदा कर रहे हैं. जदयू का शीर्ष नेतृत्व ऐसे मामलों में न तो पक्ष और न ही विरोध में प्रतिक्रियाएं दे रहा है. दरअसल, जदयू के लिए यह धर्म संकट की स्थिति है. इससे जदयू खास कर नीतीश कुमार के समर्थकों-प्रशंसकों के बीच अजीब उलझनपूर्ण स्थिति पैदा हो रही है. कुछ लोग यह भी आरोप लगा रहे हैं कि कांग्रेस और राजद नेताओं के कारनामों को जदयू का मौन समर्थन हासिल है. लगता है कि राष्ट्रपति पद के लिए राजग के उम्मीदवार का  समर्थन करके जदयू ने इस उलझन से उबरने की भी कोशिश की है. रामनाथ कोविंद का समर्थन देने के कुछ अन्य कारण भी हो सकते हैं.

बिहार के राज्यपाल के रूप में कोविंद ने जैसी शालीन भूमिका निभाई, उससे भी यह साबित हो गया कि वे कोई भी कठिन जिम्मेदारी संयम व शालीनतापूर्वक निभा सकते हैं. प्रतिपक्षी दल की केंद्र सरकार की ओर से भेजे गए राज्यपालों का बिहार में खराब अनुभव रहा है. मगर कोविंद ने नीतीश सरकार को ऐसा कभी महसूस तक नहीं होने दिया. यदि जदयू ने समर्थन की घोषणा नहीं भी की होती तो भी कोविंद की जीत पक्की मानी जा रही थी. पर कांग्रेस-राजद और कुछ अन्य दलों ने मीरा कुमार की उम्मीदवारी सामने लाकर दलित बनाम दलित मुकाबला कर दिया. देश के सर्वाधिक सम्मानित पद को वोट बैंक की राजनीति में उलझा देना कोई अच्छी बात नहीं है.

संयुक्त मोर्चा की सरकार ने जब केआर नारायण को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया था तब तो प्रतिपक्ष ने किसी दलित को उनके खिलाफ खड़ा नहीं किया था. याद रहे कि नारायणन और कोविंद दलित पृष्ठभूमि से जरूर आए, पर वे  अन्य गुणों के लिए भी जाने जाते रहे हैं. यदि दलित राष्ट्रपति की जरूरत की बात मान भी ली जाए तो भी जदयू को कम-से-कम इस बात से संतोष होगा कि उसने ऐसे उम्मीदवार को मत दिया जिसकी जीत पक्की है. इससे भी अधिक अच्छी बात यह है कि एक ऐसा व्यक्ति राष्ट्रपति बनेगा जिसने खुद-ही-खुद को गढ़ा है. मीरा कुमार को उम्मीदवार बनाकर उन्हें ‘बिहार की बेटी’ बताना कहीं से प्रासंगिक नहीं है. बिहार से भले उन्होंने कई बार चुनाव जीता है. फिर जीत सकती हैं. परंतु उस जीत में खुद मीरा कुमार का नहीं बल्कि उनके पिता जगजीवन राम उर्फ  बाबू जी का योगदान रहा है. मीरा बिहार के ‘यशस्वी पुत्र’ जगजीवन राम की योग्य बेटी मात्र हैं.

कोविंद को समर्थन देने के नीतीश के फैसले को लालू प्रसाद यादव ने ‘ऐतिहासिक भूल’ बताई है. नीतीश कुमार अक्सर लीक से हट कर राजनीतिक फैसले करते रहे हैं. इसको लेकर कई बार उनके राजनीतिक गठबंधन में भी फेरबदल के तुरंत नये-नये अनुमान भी लगाए जाने लगते हैं. 2012 में जदयू ने राष्ट्रपति पद के चुनाव में यूपीए के उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी को वोट दिए थे, जबकि उस समय नीतीश राजग की सरकार के मुख्यमंत्री थे. कोविंद को समर्थन की खबर को लेकर भी जदयू के बारे में राजनीतिक पंडित कई तरह की अटकलें लगाने लगे हैं. ऐसा नहीं  कि नीतीश गठबंधन नहीं बदलते. भविष्य में भी बदल ही सकते हैं. कहा गया है राजनीति संभावनाओं को खेल है. पर राष्ट्रपति  चुनाव में अलग रुख अपनाने के कारण बिहार में राजद-जदयू-कांग्रेस गठबंधन सरकार के अस्तित्व पर कोई खतरा नजर नहीं आता.

यदि इस बीच कोई बड़ी राजनीतिक दुर्घटना न हो जाए तो यह बात अगले लोक सभा चुनाव तक के लिए भी कही जा सकती है. हालांकि, खुद नीतीश ने कुछ महीने पहले मुझे  बताया था कि 2020 तक यह गठबंधन कायम रहेगा. अब पूछिएगा कि जब खुद नीतीश कुमार 2020 तक की गारंटी दे रहे हैं तो आप  2019 में खतरा क्यों देख रहे हैं? सवाल जायज है. कुछ आशंकित राजनीतिक घटनाओं के बारे में खुद संबंधित नेता भी अनुमान नहीं लगा पाते. हालांकि, इसकी संभावना कम ही बताई जा रही है फिर भी कल्पना कीजिए कि अगले लोक सभा चुनाव के बाद त्रिशंकु लोक सभा बन जाए! फिर क्या होगा? हो सकता है कि किसी एचडी देवगौड़ा या इंद्र कुमार गुजराल की तलाश होने लगे. नीतीश भी उनमें से एक हो सकते हैं. होंगे ही, इसकी तो कोई गारंटी नहीं. यदि थोड़ी भी संभावना है तो कोई नेता चांस भला क्यों छोड़ेगा? 

नीतीश अभी यदि गैर राजग गठबंधन में रहेंगे, तभी तो उसका अधिक चांस रहेगा. इन सब बातों के लिए 2019 के लोक सभा चुनाव तक का तो इंतजार करना ही होगा. हालांकि, अधिकतर राजनीतिक पंडित यह भविष्यवाणी कर रहे हैं कि 2019 में भी राजग ही जीतेगा. पर सवाल है कि जब बेहतर काम बनाम जातीय समीकरण का मुकाबला होगा तो कौन कहां जीतेगा, यह कहा नहीं जा सकता. उधर, लालू प्रसाद के लिए यह आसान नहीं होगा कि वह हाशिए वाली कुछ बातों को लेकर गठबंधन की बिहार सरकार को दांव पर लगा दें. वैसे, राजद के कुछ व्याकुल नेता अपने बयानों के जरिए नीतीश और सरकार की आए दिन बखिया उधेड़ने की कोशिश करते रहते हैं. यही पता नहीं चलता कि उन्हें कोई ‘व्याकुल’ बनाता है या खुद ही किन्हीं कारणों से वे लोग परेशान रहते हैं.

सुरेंद्र किशोर
लेखक


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