वैश्विकी : अस्थिरता के भंवर में फंसता नेपाल

Last Updated 25 Jun 2017 04:51:31 AM IST

भारत का पड़ोसी देश नेपाल एक बार फिर स्थानीय निकायों के चुनाव पर अनिश्चितता से राजनीतिक अस्थिरता के भंवर में फंसता दिखाई दे रहा है.


अस्थिरता के भंवर में फंसता नेपाल

हालांकि नेपाली कांग्रेस और माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी की मिली-जुली सरकार के प्रधानमंत्री शेरबहादुर देउबा ने सरकार की वचनबद्धता दोहराते हुए कहा था कि मधेसियों का प्रतिनिधित्व करने वाली राष्ट्रीय जनता पार्टी (आरजेपी) ने संविधान में संशोधन करने का जो मुद्दा उठाया है, उसका समाधान करना संविधान की प्रतिष्ठा कायम रखने के लिए महत्त्वपूर्ण है. विडम्बना है कि आरजेपी को देउबा सरकार के किसी भी आश्वासन पर भरोसा नहीं हुआ. आरजेपी के राजनीतिक एजेंडे में संविधान संशोधन की मांग सबसे ऊपर है. लिहाजा, उसने चुनाव का बहिष्कार करने के साथ-साथ चुनावी गतिविधियों को बाधित करने जैसे कदम भी उठाए. नेपाल में स्थानीय निकायों के दूसरे चरण का चुनाव आगामी 28 जून को होने जा रहा है.

आरजेपी की धमकियों के आगे सरकार को समर्पण करना पड़ा और मधेसी बहुल प्रांत-2 में 18 सितम्बर तक के लिए चुनाव स्थगित कर दिया गया. प्रांत-1, 5 और 7 में निर्धारित समय के अनुसार 28 जून को ही मतदान होगा, लेकिन प्रांत-5 की सामाजिक, जातीय और राजनीतिक बनावट प्रांत-2 जैसी है. लिहाजा, राजनीतिक पर्यवेक्षकों को इस बात की आशंका है कि प्रांत-5 में होने वाले चुनावों को स्थगित करने के लिए सरकार पर दबाव पड़ सकता है. स्थानीय निकायों के पहले चरण के चुनाव में करीब 73 फीसद लोगों ने मतदान किया था. करीब बीस साल बाद होने वाले स्थानीय चुनावों से ग्रामीण अंचलों के जातीय समूहों तक राजनीतिकरण की प्रक्रिया तेज हुई है. नेपाल के बहुभाषी, बहुजातीय और बहुसांस्कृतिक समूहों में इस सवाल को लेकर उत्सुकता देखी गई कि कौन जीत रहा है, और कौन हार रहा है. नेपाल जैसे पिछड़े देश में ऐसी राजनीतिक चेतना पहली बार देखी गई जो वहां लोकतंत्र के भविष्य को लेकर वैश्विक समुदाय को आस्त करती है.

मधेसी समाज राजनीति के प्रति अधिक दिलचस्पी रखता है. यह उनके राजनीतिक भविष्य के साथ भी जुड़ी हुई है. इसकी एक वजह यह हो सकती है कि मधेसी बहुल तराई का इलाका भारत के बिहार से जुड़ा हुआ है, जहां देश के अन्य हिस्सों की तुलना में राजनीतिक सक्रियता और जागरूकता ज्यादा दिखाई पड़ती है. इसलिए मधेसियों की राजनीतिक आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने वाली आरजेपी की मांगों को गलत भी नहीं ठहराया जा सकता. लेकिन उपेंद्र यादव की अगुवाई वाली मधेसी पार्टी संघीय समाजवादी फोरम (एसएसएफ) स्थानीय चुनावों में हिस्सा ले रही है. इस कारण आरजेपी और एसएसएफ के बीच जारी मतभेदों ने मधेसी एकता में दरार डाल दी है. दोनों धड़ों को मतभेद भुलाकर अपने राजनीतिक लक्ष्य की ओर बढ़ना चाहिए. उन्हें समझना होगा कि प्रांत-2 और प्रांत-5 में स्थानीय निकायों के चुनाव नहीं हो पाते हैं तो इसका असर 21 जनवरी को होने वाले संसदीय चुनावों पर भी पड़ेगा. समय-सीमा के भीतर संसदीय चुनाव कराना सांविधानिक तौर पर अनिवार्य है वरना नये संविधान का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा और नेपाली राजनीति में राज्य के शक्ति रूपांतरण का मसला धरा का धरा रह जाएगा.

डॉ. दिलीप चौबे
लेखक


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