परत-दर-परत : सत्ता के चक्रव्यूह में बौना विपक्ष
मुझे निवेदन करने दिया जाए कि राष्ट्रपति चुनाव के इतिहास में यह चुनाव सबसे निम्न स्तर का है.
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कई घटिया राष्ट्रपति हो चुके हैं, कुछ के राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनने की कोई संभावना नहीं थी, और एकाध चुनाव स्वयं नेताओं द्वारा हास्यास्पद बना दिए गए. पर पहले कभी नहीं हुआ कि राष्ट्रपति के उम्मीदवार की योग्यता की जगह उसकी जाति ही महत्त्वपूर्ण हो जाए. लगता है कि राष्ट्रपति बनने के लिए दो दलितों के बीच प्रतिद्वंद्विता चल रही है. स्पष्टत: इस बार राष्ट्रपति बनने की एकमात्र योग्यता एक खास जाति का होना बन गई है.
इस जघन्य जातिवाद की शुरु आत बेशक, सत्तारूढ़ भाजपा ने की, लेकिन निश्चित होते हुए भी कि उसका संयुक्त उम्मीदवार सफल नहीं हो पाएगा, विपक्ष जातिवाद के भंवर में पड़ने से अपने को रोक नहीं पाया. यह इस कटु सत्य का प्रतीक है कि बुनियादी मामलों में विपक्ष और भाजपा के मूल्य टकराते कम हैं, मित्रता का बरताव ज्यादा करते हैं. सरकार अगर पीला कुरता पहने हुए है, तो विपक्ष को लाल रंग का कुरता क्यों जंचे?
राष्ट्रपति पद के लिए दोनों उम्मीदवारों में गहरा साम्य है : वे दलित हैं भी और नहीं भी. दलित हैं क्योंकि उनका जन्म दलित परिवार में हुआ था, और दलित नहीं हैं क्योंकि दलितों की पीड़ा या दलितों की सामाजिक उन्नति से इनका कोई, प्रत्यक्ष या परोक्ष, सरोकार नहीं रहा है. रामनाथ कोविंद को उम्मीदवार बनाना एक तीर से दो निशाने साधने की तरह है. जवाहरलाल नेहरू के बाद सभी प्रधानमंत्रियों को ऐसा राष्ट्रपति ही चाहिए था, जिसे उनकी जी हुजूरी में संकोच न हो. हमारे संयोग से के.आर. नारायणन का स्वभाव इसके ठीक विपरीत था, और मौका आने पर प्रधानमंत्री की बेजा प्रार्थना को उन्होंने ठुकरा भी दिया था.
इससे पता चलता है कि नौकरशाही का सदस्य होने के बावजूद कोई दलित अपने स्वाभिमान की ही नहीं, ईमान की भी रक्षा कर सकता है. फिर समझ में नहीं आता कि राजनीति में आने के बाद कोई नेता अपनी मानवीय गरिमा की रक्षा करने से क्यों कतराने लगता है. एक हाथ में लड्डू और दूसरे हाथ में लड्डू प्रदान करने वाले की सैंडिल, विकास का यह कौन-सा चेहरा है? लेकिन यह चारित्रिक विशेषता तो सवर्ण नेताओं की भी है. रामनाथ कोविंद के चयन का मुख्य कारण यही जान पड़ता है. सबसे कमजोर को देश के सबसे ऊंचे पद पर बैठाना उसकी कमजोरी का शोषण करने का रास्ता प्रशस्त करता है. फिर भी हम उम्मीद करेंगे क्योंकि ऐसा करने का हमें लोकतांत्रिक हक है-कि राष्ट्रपति भवन में प्रवेश करने के बाद वे एक अच्छा राष्ट्रपति बनने का प्रयास करेंगे.
लेकिन कोविंद की जरूरत मोदी को एक और कारण से भी है. सवर्ण अपने कुटिल हृदयों के कारण मोदी सरकार के स्वयंसेवक बने हुए हैं, पर सरकार को अच्छे से पता है कि उसकी आर्थिक नीतियों के परिणामस्वरूप व्यापक समाज का मोहभंग होने लग गया है. इसकी काट क्या है? मोदी जिस रास्ते पर चल पड़े हैं, उस पर पीछे मुड़ने की संभावना कम है. अगर वह चाहें, तब भी शायद उन्हें पीछे मुड़ने नहीं दिया जाएगा. लेकिन यह जरूर किया जा सकता है कि सामाजिक न्याय की राजनीति ने जिन लोगों को बहुत पीछे छोड़ दिया है, उन्हें अपनी तरफ लाने के लिए पर्याप्त इशारे किए जाएं. कोविंद ऐसा ही एक इशारा हैं. इशारेबाजी की इसी राजनीति के तहत कभी फखरु द्दीन अली राष्ट्रपति बनाए गए तो कभी ज्ञानी जैल सिंह. इस तरह के लोग व्यक्ति नहीं, प्रतीक होते हैं. यही प्रतीकवाद मोदी को बिहार के राज्यपाल भवन तक ले गया है. लेकिन बिहार ही क्यों? क्योंकि वहां जल्द ही विधान सभा चुनाव होने वाले हैं. यह बात नीतीश कुमार भी समझते हैं, इसीलिए वे विपक्ष से छटक गए हैं.
विपक्ष के घाघ नेता इस चक्रव्यूह को न समझते हों, यह हो नहीं सकता. पर उसके भीतर आत्महत्या की प्रवृत्ति जोर मार रही है अन्यथा एक वैकल्पिक राजनैतिक दिशा खोजने का अच्छा अवसर था. विपक्ष साबित कर चुका है कि वह संप्रदायवादी नहीं है. पर यही देश की एकमात्र समस्या नहीं है. जातिवाद उससे कहीं ज्यादा विकराल समस्या है. कुछ राज्यों में सांप्रदायिकता का कीड़ा अभी रेंगता हुआ दिखाई नहीं पड़ता, पर जातिवाद की जड़ें अखिल भारतीय हैं. जातिवादी राजनीति में सांप्रदायिक विष नहीं है, पर जातिवादी राजनीति चूंकि कोई बड़ा लक्ष्य हासिल करने में विफल रही है जो उसका इरादा भी नहीं था, इसलिए अपने लोगों के बीच भी उसकी कोई प्रतिष्ठा नहीं रह गई है. इन हालात में सांप्रदायिकता के साथ उसका गठबंधन टिकाऊ और असरदार हो सकता है. यह तो तय है कि मोदी आर्थिक या सामाजिक न्याय की दिशा में कोई बड़ा कदम उठाने वाले नहीं हैं, पर वे जानते ही होंगे कि प्रतीकवाद से भी सुग्गे को काफी दिनों तक पिंजड़े में रखा जा सकता है?
लेकिन यह मीरा कुमार किस चीज का प्रतीक हैं? उनके दलित होने का लाभ विपक्ष उठाना चाहता है, पर उनकी उम्मीदवारी को कोई अर्थ देना नहीं चाहता, उसे किसी भी ऊंची चीज का प्रतीक बनाना नहीं चाहता. आत्मघात के रास्ते ऐसे ही गाबदी निर्णयों से हो कर गुजरते हैं.
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