गोरखालैंड : हंस तो नहीं रहा दार्जिलिंग
कोई दो हफ्ते से पश्चिम बंगाल के पर्वतीय क्षेत्र में जारी आंदोलन ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के इस दावे पर पानी फेर दिया है कि पहाड़ हंस रहा है.
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उल्टे एक नई मुसीबत बन कर खड़ा हो गया है, यह आंदोलन. परेशान पर्यटक आंदोलनकारियों को कोसते लौट चुके हैं. लेकिन इसके जरिए होने वाली आय से वंचित होटल-लॉज वाले, दुकानदार और अन्य तमाम व्यवसायी अपनी माली हालत को लेकर चिंतित हैं. एटीएम से पैसे नहीं मिल रहे. चाय उद्योग पर भी गंभीर खतरा पैदा हो गया है. खाने-पीने के सामान का संकट भी दरपेश है.
लेकिन आंदोलनकारी दल और संगठन गोरखालैंड की मांग पर अड़ गए हैं. इस मांग पर कल के शत्रु भी आज साथ आ खड़े हुए हैं. इससे हासिल क्या हुआ, यह तो वक्त ही बताएगा. पर मंगलवार को गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने एक सर्वदलीय बैठक करने के बाद ऐलान किया कि आंदोलन जारी रहेगा. इसमें तृणमूल कांग्रेस को छोड़ लगभग सभी दलों ने शिरकत की. वे भी जो लगातार बंद की राजनीति के पक्ष में नहीं हैं. कभी प्रतिद्वंद्वी रहे गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) से अलग हो जाने वाले पूर्व विधायक हरका बहादुर छेत्री की जन आंदोलन पार्टी, अखिल भारतीय गोरखा लीग, गोरखालैंड राज्य निर्माण मोर्चा, भारतीय गोरखा परिसंघ, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट रेवोल्युशनरी पार्टी आदि इस आंदोलन के साथ खड़े हैं. साथ ही, बंद को वापस लेने के पक्ष में हैं. जीएनएलएफ ने तो मोर्चा से जीटीए से बाहर निकल आने की सलाह दी है. गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के महासचिव ने कहा है कि ताजा हालात के लिए उनका दल जिम्मेदार नहीं, लेकिन बातचीत गोरखालैंड पर होनी चाहिए. मोर्चा सरकार की ओर से होने वाली 22 जून की बैठक में शिरकत करने से इनकार कर दिया है. वह इस मसले पर केंद्र से बात करना चाहता है. भाजपा सांसद और मंत्री एसएस अहलूवालिया से उसे न्याय को भरोसा है. सांसद ने इस मांग पर विचार करने के लिए गृह मंत्रालय से विशेषज्ञों की एक समिति बनाने की मांग की है. मोर्चा ने कहा है कि लोक सभा चुनाव में भाजपा उम्मीदवार को समर्थन के एवज में वह उनसे कुछ उम्मीद तो कर ही सकता है.
सभी जानते हैं कि गोरखालैंड की मांग पर्वतीय क्षेत्र में बीच-बीच में उठती रही है. भाषायी और सांस्कृतिक अस्मिता के सवाल इससे जोड़े जाते रहे हैं. आर्थिक उपेक्षा या विकास का मसला भी स्वर पाता रहा है. वैसे तो यह मांग बहुत पुरानी है. कोई सौ साल से भी ज्यादा पुरानी. इसके लिए कई बार हिंसक आंदोलन हो चुके हैं. जीएनएलएफ का आंदोलन इसका गवाह रहा है. उसे पीछे कर ही मोर्चा सामने आया है. इसमें भाजपा, कांग्रेस और तृणमूल के दिए खाद-पानी की भी भूमिका रही है. जीटीए में गोरखालैंड शब्द का समायोजन ममता सरकार की ही देन है-दार्जिलिंग पर्वतीय परिषद की जगह गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन.
बहरहाल, ताजा आंदोलन के पीछे राज्य सरकार की वादाखिलाफी के आरोप के साथ ही बांग्ला भाषा को थोपे जाने का बहाना भी है. गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन (जीटीए) के अध्यक्ष विमल गुरुंग का आरोप है कि जीटीए कोसमझौते के मुताबिक जरूरी विभाग नहीं सौंपे गए. इसे न तो अपेक्षित अधिकार मिल पाया और न ही धन. राज्य सरकार ने पूरी क्षमता के साथ काम करने के अवसर-साधन ही नहीं दिए.
गौरतलब है कि उन्नीस सौ अस्सी के दशक में गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट ने सुभाष घीसिंग की अगुआई में अलग राज्य की मांग को लेकर हिंसक आंदोलन शुरू किया था. 1985 से 1988 के दौरान इसी मांग के तहत चले आंदोलन में हिंसा की तमाम वारदात में करीब 13 सौ लोग मारे गए थे. तब की वाम मोर्चा सरकार ने भी इस मांग को खारिज कर दिया था. बाद में सरकार ने सुभाष घीसिंग के साथ एक समझौते के तहत दार्जिलिंग गोरखा पर्वतीय परिषद का गठन किया था. घीसिंग वर्ष 2008 तक इसके अध्यक्ष रहे. इसी बीच उनके काम से नाखुश लोगों की पहल से पहाड़ियों में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा को ताकतवर बनाया जाने लगा. विमल गुरुंग की अगुवाई में मोर्चा ने नये सिरे से अलग गोरखालैंड की मांग में आंदोलन शुरू कर दिया. विपक्ष में बैठे राजनीतिक दलों ने भी अपनेराजनीतिक नफा-नुकसान के मद्देनजर सियासी रोटियां सेंकी. तबके हालात के लिए कांग्रेस और बाद में तृणमूल कांग्रेस ने वाम मोर्चा सरकार को जिम्मेदार माना और अब कांग्रेस, भाजपा और वाम दल मौजूदा हालात के लिए ममता बनर्जी को जिम्मेदार मान रहे हैं. कोई इस सरकार की बदले की राजनीति को जिम्मेदार ठहरा रहा है, तो कोई गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के प्रति सरकार के भेदभाव वाले रवैये को. राज्य कांग्रेस अध्यक्ष अधीर चौधरी खुल कर दार्जिलिंग की हालत के लिए ममता बनर्जी को जिम्मेदार बता रहे हैं. इसी तरह भाजपा अध्यक्ष दिलीप घोष ने सरकार पर मोर्चा और जीटीए के साथ सौतेला व्यवहार करने का आरोप लगाया है, तो वाम दलों ने ममता की अवसरवादी राजनीति को. घोष कहते हैं कि सरकार को इस मुद्दे पर सर्वदलीय बैठक बुलानी चाहिए.
वैसे, राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि इधर तृणमूल ने पहाड़ी क्षेत्र में जिस तरह अपनी गतिविधियां तेज की हैं, उससे मोर्चा के कान खड़े हो गए हैं. गौरतलब है जीटीए का कार्यकाल खत्म होने को आया, लेकिन अगले महीने होने वाले जीटीए चुनावों पर आंदोलन का असर पड़ना तय है. हो सकता है कि इसे टाल भी दिया जाए. इसी के खर्चे की जांच के आदेश से ही मोर्चा नेतृत्व राज्य सरकार के खिलाफ भड़का और अचानक आंदोलन शुरू कर दिया. ममता बनर्जी सरकार ने बेहद सख्ती दिखा कर आग में घी डालने का काम कर दिया है. संप्रति आंदोलन व राजनीति की मंशा और अंजाम जो भी हो, लेकिन सच यह है कि इस इलाके के लोग परेशान हैं, और असंतुष्ट भी.
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