प्रसंगवश : सत्याग्रह की शताब्दी यात्रा

Last Updated 16 Apr 2017 03:34:32 AM IST

सत्याग्रह का अर्थ होता है सत्य के पथ पर डटे रहना. इसका अर्थ सिर्फ अपने मत के पक्ष में और विरोधी विचार के विपक्ष में खड़े होना यानी प्रतिरोध करना नहीं है.


प्रसंगवश : सत्याग्रह की शताब्दी यात्रा

आज के राजनैतिक दौर में आग्रह तो आए दिन खूब किए जाते हैं पर उनमें सत्याग्रह कम दुराग्रह ही ज्यादा होते हैं. सत्रह अप्रैल को भारत के पहले सत्याग्रह को पूरे सौ साल हो रहे हैं. यह मौका है कि प्रजातंत्र के इस अहिंसात्मक उपाय पर एक नजर डाली जाए जिसने देश के स्वतंत्रता आंदोलन में विशेष भूमिका निभाई थी.
आधुनिक युग में सत्याग्रह की खोज और सामाजिक-राजनैतिक जीवन में सार्वजनिक उपयोग सर्वप्रथम महात्मा गांधी द्वारा किया गया. गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की समस्याओं के संदर्भ में सत्याग्रह के विचार का प्रयोग पहले पहल शुरू किया. वह 1915 में भारत लौटे थे. जनता की बदहाली समझने के लिए गोपाल कृष्ण गोखले की सलाह पर गांधी जी ने देश के विभिन्न क्षेत्रों में घूम-घूम कर पूरे एक साल देश में व्याप्त समस्याओं और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को निकट से समझने की कोशिश की.
इसी बीच लखनऊ में कांग्रेस का वर्ष 1916 में राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ था, जो भारतीय राजनीति में प्रस्थान विंदु साबित हुआ. राजकुमार शुक्ल, जो चंपारण के साधारण किसान थे, भी अधिवेशन में पहुंचे थे. चंपारण उत्तरी बिहार का जिला है, और वहां नील की खेती करवा कर नील पैदा कर विदेश भेजना बड़ा अच्छा व्यापार हो चुका था. निलहे साहबों ने नाना प्रकार के टैक्स लगा कर किसानों को अमानवीय स्थिति में रहने पर मजबूर कर दिया था. इन पीड़ित किसानों की सुधि लेने के लिए राजकुमार शुक्ल प्रयासरत थे. अधिवेशन में बिहार से प्रतिनिधि के रूप में पहुंचे  ब्रज किशोर बाबू ने एक प्रस्ताव पढ़ा जिसका शुक्ल ने  समर्थन किया. वहां गांधी उपस्थित थे.

शुक्ल ने गांधी जी को निलहे गोरों द्वारा किसानों पर हो रहे अत्याचार की व्यथा सुनाई. शुक्ल ने गांधी जी से वहां चल कर स्वयं देखने का आग्रह किया. गांधी जी ने हामी भरी और कुछ दिनों बाद यह संयोग बना. सात अप्रैल को चंपारण के लिए गांधी जी चल पड़े. दस अप्रैल को पटना पहुंचे. पटना से ट्रेन पकड़ कर आधी रात को गांधी जी मुजफ्फरपुर पहुंचे. स्टेशन पर आचार्य कृपलानी अपने छात्रों के साथ मिले. चौदह अप्रैल को दिन में  तीन बजे वे मोतिहारी पहुंचे. सोलह अप्रैल की सुबह एक गांव गए. उनके आने की सूचना आग की तरह फैल गई. उनके बारे में अनेक कहानियां पहले ही पहुंच चुकी थीं. अंग्रेज सरकार को खबर लगी और गड़बड़ी की आशंका से तुरंत नोटिस दी गई कि गांधी तत्काल मोतिहारी छोड़ दें. गांधी जी ने इस आदेश का सविनय विरोध किया और दंड सहने के लिए तैयार हो गए. सरकार के सामने कोई चारा नहीं था और गांधी जी पर से मुकदमा वापस ले लिया गया. इस तरह उनके असहयोग आंदोलन और नागरिक अवज्ञा आंदोलन की जड़ें पड़ीं.
निलहों का राज खत्म हो और लोगों की जिंदगी में सकारात्मक बदलाव आए इस भाव से गांधी जी ने काम शुरू किया. गांधी जी ने उस क्षेत्र में स्कूल खोले और स्वास्थ्य की दृष्टि से कार्य शुरू किया. भारत की धरती पर गांधी जी का यह समाज के साथ पहला सामाजिक प्रयोग था. बाबू राजेंद्र प्रसाद उनके सहयोगी रहे. अंतत: निलहे अंग्रेजों को भागना ही पड़ा. चंपारण कृषि कानून एक्ट को नवम्बर, 1917 में स्वीकृति मिली जिसमें किसानों पर होने वाले बर्बर अत्याचार से मुक्ति की व्यवस्था की गई. अगले वर्ष यह कानून  भारत के राजकीय गजट में भी प्रकाशित हुआ. स्वयं गांधी जी के शब्दों में ‘मैंने वहां ईश्वर का, अहिंसा का और सत्य का साक्षात्कार किया’. उनके ऊपर मुकदमा चला और हिंदुस्तान को सत्याग्रह का या सविनय भंग का पहला स्थानीय पाठ प्राप्त हुआ.
चंपारण में गांधी जी ने सामान्य जनों के जीवन को निकट से देखा. स्वयं उनका नजरिया भी सदा के लिए बदल गया. पूरे दस महीने चले इस आंदोलन में मारपीट जैसी कोई अप्रिय घटना नहीं हुई. उनका मानना था कि अहिंसा विचार, शब्द और कर्म तीनों में ही होनी चाहिए. वे प्रेम को जीवन का आधार, सकारात्मक शक्ति मानते थे. उनकी सोच थी कि सत्याग्रह जीवन के हर क्षेत्र में उपयोगी है. आज जब कटुता तेजी से बढ़ रही है. लोग शीघ्रता से हिंसा के मार्ग पर चलने को उतारू हैं, गांधी जी के विचारों का महत्व और बढ़ जाता है. ‘सत्यमेव जयते’ के आदर्श वाक्य का अर्थ सत्याग्रह से ही चरितार्थ होता है.

गिरीश्वर मिश्र
लेखक


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