विश्लेषण : जहर घोलती राजनीति
राजनीति यदि समाज के धवल पक्ष को उजागर करती है, तो सबसे गंदे पहलू पर भी रोशनी डालती है.
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चुनाव में इन दोनों बातों के दर्शन होते हैं. जैसे-जैसे उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव का रथ आगे बढ़ रहा है, वैसे-वैसे माहौल में तल्खी और जहर घुल रहा है, और नेताओं की शब्दावली घटिया होती जा रही है. चुनाव प्रचार में प्रतिस्पर्धी पर आरोप लगना अस्वाभाविक नहीं है, पर इसकी आड़ में जैसा जहर जीवन और समाज में घुलने लगा है, वह खतरनाक सीमा पर पहुंचा जा रहा है.
नरेन्द्र मोदी को प्रतिस्पर्धी राजनेताओं का मखौल बनाने में महारत हासिल है. उन पर सांप्रदायिक विद्वेष बढ़ाने के आरोप हैं, पर अभी तक उन्होंने कोई बात इतने सीधे-सीधे नहीं कही, जो पिछले रविवार को एक चुनाव सभा में कही. मोदी ने कहा, ‘गांव में अगर कब्रिस्तान बनता है, तो श्मशान भी बनना चाहिए. रमजान में बिजली मिलती है, तो दिवाली पर भी मिलनी चाहिए. होली पर बिजली मिलती है, तो ईद पर भी बिजली मिलनी चाहिए. जाति-धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए.
ऊंच-नीच नहीं होनी चाहिए.’ इस बयान को सीधे पढ़ें तो कोई बात गलत नहीं नजर आएगी, पर कहने का अंदाज गलत हो तो इसके अर्थ गंभीर हो जाते हैं. मोदी ने ‘अगर’ शब्द का इस्तेमाल करके उत्तर प्रदेश की सपा सरकार पर सांप्रदायिक भेदभाव का आरोप लगाया और धर्म को बीच में ले आए हैं. उन्होंने जिन पवरे और त्योहारों का उल्लेख किया है, वे हमें जोड़ते रहे हैं. श्मशान और कब्रिस्तान भी हमें जोड़ते हैं. इन बातों से सामाजिक विभाजन नहीं करना चाहिए. 2014 के लोक सभा चुनाव के पहले से उत्तर प्रदेश के माहौल में सांप्रदायिक कड़वाहट घुली हुई है. यह माहौल देश के उस आर्थिक विकास से मेल नहीं खाता, जिसकी बात नरेन्द्र मोदी कर रहे हैं.
भारतीय जनता पार्टी और उसकी पूर्ववर्ती जनसंघ का कांग्रेस के खिलाफ ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ का आरोप हमेशा रहा है. यह राजनीतिक बहस है, और इसे संजीदगी से चलाया जाना चाहिए पर यह ध्यान रखते हुए कि इससे जीवन में कटुता न बढ़ने पाए. हमने संविधान में धर्मनिरपेक्षता शब्द को शामिल नहीं भी किया होता तब भी हमारी राज-व्यवस्था धर्मनिरपेक्ष है. और भारतीय जनता पार्टी भी इस धर्मनिरपेक्षता से बंधी है.
राजनीति ने धर्मनिरपेक्षता की व्याख्या अपने-अपने तरीके से की है. कांग्रेस से लेकर सपा तक धर्मनिरपेक्षता का ढिंढोरा पीटने वाली पार्टयिां भी इसकी अवहेलना के आरोपों से बच नहीं सकतीं. यदि सपा सरकार ने कब्रिस्तानों के लिए ज्यादा पैसा खर्च किया है, तो यह भी ‘पनीली-उदारता’ है. मुसलमानों के सामान्य हित भी रोटी-कपड़ा और मकान हैं. धार्मिंक प्रतीकों की राजनीति किसी का भला करने वाली नहीं है. यह केवल भावनाओं की खेती है.
इस चुनाव के ठीक पहले सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि चुनाव में धर्म का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए. चुनावों के कारण हमारा सामाजिक ताना-बाना यों भी कमजोर पड़ता जा रहा है. नरेन्द्र मोदी राजनेता के साथ-साथ देश के प्रधानमंत्री भी हैं. उत्तर प्रदेश की सरकार पर आरोप लगाने के लिए उनके पास दूसरे मंच भी थे. ऐसे बयान उन्हें शोभा नहीं देते. इस बयान को लेकर राजनीतिक वितंडा खड़ा करना दूसरे किस्म का रोग है.
अच्छी बात है कि कांग्रेस इसे लेकर चुनाव आयोग से शिकायत करने के फैसले से पीछे हट गई है. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता आनंद शर्मा ने कहा कि निर्वाचन आयोग को इस पर खुद संज्ञान लेना चाहिए क्योंकि उनके पास संवैधानिक अधिकार है. कांग्रेस का यह फैसला समझदारी की वजह से है, या सीनियर नेताओं के उपलब्ध नहीं होने के कारण, यह अभी स्पष्ट नहीं है. अलबत्ता, मोदी के जवाब में सपा के नेताओं की प्रतिक्रिया भी कुरु चिपूर्ण है.
पिछले तीन दशक से उत्तर प्रदेश में होने वाले चुनावों में कहीं न कहीं से सांप्रदायिक विद्वेष भड़काने वाली जहर-बुझी बातें होती हैं, जिनकी प्रतिध्वनि पूरे देश में सुनाई पड़ती है. यह प्रवृत्ति 1992 में बाबरी मस्जिद के ध्वंस के कई साल पहले शुरू हो गई थी. यह प्रवृत्ति एकतरफा नहीं है. मुसलमान को ‘वोट बैंक’ बनाने वाली राजनीति भी इसके लिए जिम्मेदार है. फिलहाल, चिंता की बात यह है कि विधान सभा के चुनाव के दौरान हर बार कहीं न कहीं से कुछ ऐसी जहर बुझी बातें सामने आती हैं, जो पूरे देश के माहौल को खराब करती हैं.
मोदी के बयान में ओछापन है, तो अखिलेश यादव का बयान भी कुरु चिपूर्ण है. उन्होंने गुजरात के ‘गधों’ के रूपक को लेकर जो बातें कहीं हैं, वे एक राज्य और एक प्राणी के अलावा प्रधानमंत्री के बारे में कुरुचिपूर्ण समझ को व्यक्त करती हैं. ऐसा ही बयान सपा के प्रवक्ता राजेन्द्र चौधरी का भी है. उन्होंने एक न्यूज एजेंसी को दिए अपने इंटरव्यू में कहा कि मोदी और अमित शाह, दोनों आतंकवादी हैं और आतंक पैदा कर रहे हैं. पिछले साल सितम्बर में अपनी किसान यात्रा के दौरान गाजीपुर-मऊ रोड पर भाडसर में राहुल गांधी ने कहा, ‘मोदी सेल्फी लेता है, मस्ती करता है. इसकी मस्ती कम करना है.’
पिछले साल बसपा प्रमुख मायावती को लेकर भाजपा के नेता दयाशंकर की एक टिप्पणी के बाद उत्तर प्रदेश में कड़वाहट का प्रदशर्न हुआ. बयान निम्नस्तरीय था. इसके फौरन बाद भाजपा को अपने नेता के खिलाफ कार्रवाई करनी पड़ी पर जवाब में बसपा कार्यकर्ताओं की जो प्रतिक्रिया थी, उसने भी मर्यादा की रेखाओं को तोड़ दिया था. मोटी बात है कि राजनीतिक दलों के पास कोई मसला नहीं है. जनता से जुड़े सवाल चुनाव से गायब हैं. चुनाव सभाओं में एक दूसरे की ऐसी-तैसी करना ही उनका मसला है. दूसरी ओर, विशेषज्ञों से लेकर सामान्य कार्यकर्ता जातीय और सांप्रदायिक आधार पर अपने नतीजे निकाल रहे हैं. यकीनन, इससे चुनावों की संजीदगी खत्म हो रही है, और वे मजाक बने जा रहे हैं.
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