महाशिवरात्रि : धारण करें शिवत्व को

Last Updated 24 Feb 2017 06:07:12 AM IST

फाल्गुन मास की चतुर्दशी को मनाया जाने वाला महाशिवरात्रि पर्व भगवान शिव की प्रसन्नता प्राप्त करने का, उनकी आराधना का विशेष पर्व है.


महाशिवरात्रि : धारण करें शिवत्व को

इस दिन का प्रत्येक भक्त के उनकी कृपा व अनुग्रह को प्राप्त कर कृतार्थ होना चाहता है. इसी भावना से महाशिवरात्रि पर्व देशभर में भारी श्रद्धा व उत्साह से मनाया जाता है. भारतीय  वांड्मय में भूतभावन भगवान शिव को ‘देवाधिदेव’, ‘महादेव’, ‘आदियोगी’ आदि विशेषणों से यों ही विभूषित नहीं दिया गया है, वे सही मायने में देवत्व के सर्वोत्कृष्ट प्रतीक हैं.

‘शिव’ का शाब्दिक अर्थ ही है कल्याण करने वाले, शुभत्व के प्रतीक, मंगलमय. भोलेशंकर सृष्टि का कल्याण करने वाले महानतम देवता हैं; करुणा के महासागर हैं. समुद्र मंथन के समय जब विष निकला तो किसी भी देवता की उस गरल को छूने तक की हिम्मत नहीं हुई, उस समय स्वयं की परवाह न करते हुए जगत के कल्याणार्थ उस प्राणघातक विष का पान करके महादेव उस गरल को कंठ में ही रोककर ‘नीलकंठ’ कहलाए. आदिगुरु नटराज के वाद्य ‘डमरू’ से  सृष्टि में ‘नाद’ व ‘शब्द’ की उत्पत्ति हुई. कर्पूर के सामान दिव्य व उज्ज्वल व गौर वर्ण वाले और भुजगेन्द्र कंठहार से सुशोभित तांडव नृत्य के सर्जक व संहार के नियामक महादेव जितने अद्भुत और सरल हैं, उतनी ही पावन व मंगलकारी उनकी शिक्षाएं भी हैं.

भगवान शिव श्मशान की राख को शरीर पर मलते हैं. तात्पर्य यह कि हमें काया की नरता का बोध सतत बना रहे. भगवान शिव ने जिस तरह अपने तीसरे नेत्र से कामदेव को भस्म कर दिया था, वैसे हमें स्वयं व समाज से अनैतिकता, अश्लीलता और कामुकता को दूर करने का प्रयास करना चाहिए. उनके मुंडों की माला पहनने के पीछे का भाव यह है कि हम मृत्यु को जीवन का उत्सव बना लें. शिव जी को आक, धतूरा, भांग आदि विषाक्त व नशीली वस्तुएं चढ़ाने की जो परम्परा है, उसके पीछे निहितार्थ यह है कि प्रत्येक वस्तु और व्यक्ति के शुभ-अशुभ, अच्छे-बुरे दोनों पहलू होते हैं; इन नशीले व विषाक्त पदाथरे को शिव को चढ़ाने का अर्थ हुआ कि हमें  प्रत्येक व्यक्ति व वस्तु के अशुभ तत्व का त्याग कर उसके शुभ व लाभकारी पक्ष को स्वीकार करना चाहिए. 

‘शिवोभूत्वा शिवं जयेत्’ अर्थात हमारा स्वयं का जीवन भी भगवान शिव के समान सृष्टि के कल्याण में लगे, शिव की विशेषताएं हमारे मन-मस्तिष्क में छा जाएं, उनका सही रूप हमारे जीवन में चरितार्थ होने लगे, यही है शिव आराधना का वास्तविक मर्म. सरल शब्दों में कहें तो शुभ और कल्याणकारी चिंतन, चरित्र एवं आकांक्षाएं बनाना ही सच्ची शिव-पूजा है. जो व्यक्ति भगवान शिव के समान जब स्वार्थ का परित्याग कर परमार्थ को अपनी साधना, आराधना समझेगा वही शिवत्व को प्राप्त कर सकेगा. अर्थात, शिव की अनुकंपा उसी पर होगी. गौरतलब हो कि शिव सर्वसमाज के सर्वमान्य देवता हैं. शिवरात्रि व्रत मनाने का अधिकार ब्राह्मण से लेकर चंडाल तक सभी को है. भोले बाबा के लिए सब एक समान हैं. भगवान शिव गुणों के भंडार हैं.

महाशिवरात्रि का अति पावन अवसर प्रत्येक साधक से आह्वान करता है कि उठो, जागो  और यदि अपनी और दूसरों की सुख़-शांति चाहते हो तो अपरिग्रह, सादा जीवन, उच्च विचार, परोपकार, समता, परदु:ख कातरता और परमात्मा के सामीप्य को ग्रहण करो. केवल अपनी उन्नति में ही संतुष्ट न रहो वरन दूसरों की, अपने समाज की तथा अपने राष्ट्र की उन्नति को अपनी सफलता मानो. इन संदेशों को यदि हम अपने अंत:करण में स्थान दे सकें व उन्हें कार्यरूप में परिणत कर सकें तो महाकाल के सच्चे अनुयायी-अनुचर कहलाने के अधिकारी होंगे. तकनीकी रूप से अत्यधिक विकसित हो जाने के बावजूद हम व हमारा समाज आज इतना कुंठित, दमित, तनावग्रस्त व असुरक्षित क्यों है, क्या कभी हमने इस बात पर गहराई से विचार किया है कि चांद-तारे व मंगल छूने के बावजूद इंसान ही इंसान जान का दुश्मन बना हुआ है.

घोर स्वार्थी सामाजिक परिवेश में मानवीय संवेदनाएं व सद्भाव खत्म होते जा रहे हैं. छल, प्रपंच, झूठ, बेइमानी, भ्रष्टाचार, हिंसा, छुआछूत, भेदभाव, भूत-प्रेत, टोने-टोटके आदि अनेकानेक कुरीतियां समाज में गहरी जड़ें जमाये बैठी हैं. कारण है जीवन मूल्यों का क्षरण. ऐसी विषम परिस्थितियों में भगवान शिव से जुड़ी ये कल्याणकारी शिक्षाएं एक सभ्य, सुसंस्कृत, स्वस्थ, विकसित व मूल्यपरक समाज की स्थापना में अत्यन्त सहायक साबित हो सकती हैं, बशत्त्रे हम उन्हें सच्चे भाव से ह्दयंगम करें व आचरण में उतारें.

पूनम नेगी
लेखिका


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