बीएमसी : रहना होगा साथ-साथ

Last Updated 24 Feb 2017 06:14:10 AM IST

मुझे और नहीं, तुम्हें ठौर नहीं-यही कहा जाता है महाराष्ट्र के शिवसेना-भाजपा के केसरिया गठबंधन के बारे में.


बीएमसी : रहना होगा साथ-साथ

राज्य के विधान सभा चुनाव के बाद यह बात मुंबई नगर निगम के चुनाव के नतीजों ने एक बार फिर साबित कर दी है. पिछले विधान सभा चुनाव से पहले केसरिया गठबंधन टूटा था और भाजपा और शिवसेना ने अलग चुनाव लड़ा था मगर जब चुनाव के नतीजे आए तो दोनों दलों को साथ आने पर मजबूर होना पड़ा. इस बार मुंबई नगर निगम के चुनाव से पहले भाजपा-शिवसेना गठबंधन में महाभारत शुरू हो गया  था.  भाजपा के साथ सीटों पर तालमेल न हो पाने पर  शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के ‘तलाक, तलाक, तलाक’ कहने के बाद तीन दशक पुराना केसरिया गठबंधन टूट गया.

लेकिन नतीजे कुछ ऐसे आए हैं कि शिवसेना और भाजपा को फिर साथ आना पड़ेगा. 227 सदस्यों वाली मुंबई नगर निगम में शिवसेना के 84 सीटें मिली हैं तो भाजपा को 80. शिवसेना कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं कर सकती. इसलिए न चाहते हुए भी शिवसेना और भाजपा को फिर गठबंधन करना पड़ेगा. मुंबई को लेकर शिवसेना बहुत  भावुक है. यूं भी मुंबई महानगर पालिका है भी बहुत महत्त्वपूर्ण. जिसका वार्षिक बजट 37 हजार करोड़ रु पये है, जो देश के कुछ छोटे राज्यों के बजट से ज्यादा है.

शिवसेना का  मुंबई से लगाव इसलिए भी है क्योंकि वहीं उसका जन्म हुआ वहीं उसने मराठी मानुष के नाम पर पहचान बनाई. लेकिन इस भावुकता में उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि राज्य की जनता का स्पष्ट जनादेश भाजपा के पक्ष में है.

महाराष्ट्र के दस स्थानीय निकायों में आठ में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी भाजपा ही ‘मैन ऑफ द मैच’ है. लोक सभा फिर विधान सभा और अब स्थानीय निकायों के चुनाव ने साबित कर दिया कि राज्य में भाजपा का प्रभाव तेजी से बढ़ा है. मगर यह भी सही है कि भाजपा शिवसेना से गठबंधन के बिना वह अधूरी है. उसे बहुसंख्य लोगों का समर्थन हासिल नहीं हो पाता. पिछले कुछ समय से शिवसेना और भाजपा के झगड़े से राज्य पर अनिश्चितता के बादल मंडरा रहे हैं. शिवसेना ने भाजपा के साथ अपना गठबंधन तोड़ लिया और कहा, राज्य सरकार नोटिस पीरियड  में चल रही है , जिससे वह कभी भी अपना समर्थन वापस ले सकती है.

आमतौर पर यही माना जा रहा है कि स्थानीय निकायों के चुनाव और पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों के नतीजे आने के बाद शिवसेना राज्य सरकार से समर्थन वापस लेने के बारे में फैसला करेगी. लेकिन हाल ही के चुनाव से शिवसेना की अपने बूते मुंबई के चुनाव में बहुमत लाने की महत्त्वाकांक्षा पर पानी फिर गया है. इसलिए उसे राजनीतिक वास्तविकता को समझना होगा. यदि उसे मुंबई मगर निगम पर सत्ता बनाएं रखनी है तो भाजपा के साथ गठबंधन करना ही होगा. वैसे भाजपा को भी उसकी जरूरत है ही. जिन आठ नगर निगमों में वह सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी है, उसमें से कुछ में उसे शिवसेना के मदद की दरकार रहेगी. यों भी सरकार में बने रहना शिवसेना की अपनी एकता के लिए भी जरूरी है. यदि वह सत्ता में नहीं रही तो उसमें फूट पड़ सकती है. कई विधायक टूटकर भाजपा में शरीक हो सकते हैं, क्योंकि वे लंबे समय से विपक्ष में रहते हुए उकता चुके हैं.

महाराष्ट्र के स्थानीय निकाय के चुनाव प्रधानमंत्री मोदी के नोटबंदी के एडवेंचर की भी परीक्षा थे. इन नतीजों ने बता दिया कि लोगों ने उन्हें पास कर दिया है. मोदी अलावा यह मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस की भी परीक्षा थी. दरअसल, मराठा आरक्षण को लेकर जिस तरह महाराष्ट्र में लगभग पच्चीस जिलों में मराठाओं ने लाखों की तादाद में प्रदर्शन किए, उससे फड़नवीस की लोकप्रियता पर सवालिया निशान लगता जा रहा था. ऐसा माना जा रहा था कि राज्य के पैंतीस प्रतिशत आबादीवाली मराठा जाति में उनको लेकर असंतोष है. कुछ लोग तो यह भी मानते थे कि तीन प्रतिशत वाले ब्राह्मण समाज के देवेंद्र फड़नवीस को मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा ने बहुत बड़ी गलती की है. इन चुनाव ने साबित कर दिया कि यह आशंका निराधार है.

उद्धव ठाकरे ने यदि शिवसेना भाजपा की  इस पूरकता को नहीं समझा और समर्थन वापस लिया तो राज्य में  मध्यावधि चुनाव की नौबत आ सकती है. शरद पवार पहले ही इस आशय की बात कह चुके हैं. हाल ही में उन्होंने कहा कि वे किसी को समर्थन नहीं देंगे. शिवसेना ने गठबंधन तोड़ने के बावजूद सरकार इसलिए नहीं छोड़ी क्योंकि उसे लगता था कि कहीं सरकार में एनसीपी उसकी जगह न ले ले. गठबंधन में दरार पड़ने के बाद चतुर सुजान राजनीतिक नेता शरद पवार ने गुगली डालते हुए बयान दे डाला कि यदि शिवसेना सरकार से समर्थन वापस ले ले तो भाजपा उनसे बात करने आए. इससे राज्य में लंबे समय से लग रही इन अटकलों को बल मिला है; यदि शिवसेना राज्य सरकार से समर्थन वापस लेती हैं तो पवार की पार्टी समर्थन दे सकती है. लेकिन रंग बदलने में गिरगिट से होड़ करनेवाले पवार ने अब बयान बदल दिया कि उनकी पार्टी शिवसेना और भाजपा में से किसी को समर्थन नहीं देगी. यदि ऐसा हुआ तो राज्य में मध्यावधि चुनाव हो सकते हैं. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एनसीपी को चुनाव अभियान के दौरान ‘नेचरल पार्टी ऑफ करप्शन’ कहा था. मगर शरद पवार के साथ उनके रिश्ते बहुत घनिष्ठ हैं.

इस बार तो उनकी सरकार ने शरद पवार को पद्म विभूषण जैसा सम्मान भी दिया. दूसरी तरफ पवार शिवसेना के कारण  भाजपा सरकार को पैदा होने वाले संकट से बचाते रहे  हैं. मगर भाजपा एनसीपी के साथ गठबंधन करने के लिए उत्सुक नहीं हैं क्योंकि उसके कई नेता और पूर्व मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप हैं, जिनकी जांच चल रही है. गठबंधन होने पर मुकदमों को नजरअंदाज करना पड़ेगा, जिससे पार्टी की छवि खराब होगी. मगर शिवसेना तेवरों के कारण पवार महत्त्वपूर्ण हो गए हैं. अभी तो सत्ता में न रहते हुए पवार पॉवरफुल बने हुए हैं.

सतीश पेडणेकर
लेखक


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