पाकिस्तान में निशाने पर शिया और सूफी

Last Updated 20 Feb 2017 05:26:07 AM IST

पाकिस्तान के सिंध प्रांत में स्थित लाल शाहबाज कलंदर की दरगाह पर हुए आतंकी हमले में 100 से ज्यादा लोग मारे गए और 250 लोग घायल हुए.




पाकिस्तान में निशाने पर शिया और सूफी

शाहबाज कलंदर के सम्मान में लिखी कव्वाली \'दमादम मस्त कलंदर\' दुनिया भर में मशहूर है. आतंकी संगठन आईएस ने इस हमले की जिम्मेदारी ली है. पिछले साल नवम्बर में भी बलूचिस्तान प्रांत की मशहूर सूफी दरगाह शाह नूरानी पर आतंकी हमले में 52 लोगों की मौत हुई थी. तब भी  आतंकी संगठन आईएस ने  हमले को उसने अंजाम दिया था. यह इस बात का प्रतीक है कि पाकिस्तान भले ही मुस्लिम देश हो मगर वहां सबसे ज्यादा असुरक्षित हैं मुसलमान. कभी सारा पाकिस्तान अहमदियाओं के खिलाफ उठ खड़ा हुआ था और उनका जीना मुहाल कर दिया था. आखिरकार उन्हें कानूनन गैर मुसलमान घोषित कर दिया गया. फिर शिया निशाने पर आए. उन्हें काफिर घोषित करने की मांग होने लगी, हजारों शिया सांप्रदायिक हिंसा में मारे गए. अब बारी सूफियों की ही है. अब तक कई सूफी संतों की दरगाहों पर हमले हो चुके हैं. जाने-माने कव्वाल साबरी की हत्या के पीछे भी असल निशाना सूफी ही थे. ये आतंकी हमले वहाबी संप्रदाय की सूफियों के खिलाफ चल रही जंग का हिस्सा है.

इराक, ईरान, पाकिस्तान, भारत  अफगानिस्तान, तुर्की, सीरिया आदि कई देशों में  ऐसी तमाम ऐतिहासिक धरोहरें हैं, जिनका संबंध इस्लामी जगत के सूफी फकीरों, से है. मुसलमान ऐसी जगहों पर मन्नतें व मुरादें मांगते है. जबकि इसके विपरीत वहाबी नमाज पढ़ने के सिवा किसी भी अन्य स्थल, दरगाह, मकबरा आदि में चलने वाली गतिविधियों जैसे मजलिस, ताजियादारी, नोहा, मातम, कव्वाली, नात आदि चीजों को गैर इस्लामी मानते हैं. पाकिस्तान में यही विचारधारा दरगाहों, धार्मिंक जुलूसों पर आत्मघाती हमले और लोगों की हत्याएं करती  है.

पाकिस्तान के सबसे खतरनाक आतंकी संगठन  तहरीके तालिबान-जो कई आतंकवादी संगठनों का गठबंधन है-ने 2005 से अबतक तीस  सूफी दरगाहों को निशाना बनाया, जिनमें कई तो सौ साल से ज्यादा पुरानी हैं. अब तक इस्लामाबाद के बड़ी इमाम दरगाह, मोहम्मद एजेंसी में हाजी साहब तुरंगजई की दरगाह, पेशावर के चमखानी में अब्दुल शकूर बाबा की दरगाह समेत कई मकबरों, पेशावर में 17वीं सदी के सूफी कवि अब्दुल रहमान बाबा, डेरा गाजी खान में साखी सरवर दरगाह, पाकपत्तन शहर में एक सूफी दरगाह, चमकानी में फंडू बाबा की दरगाह, सूफी हजरत बाबा फरीद, सूफी अब्दुल्लाह शाह गाजी की दरगाह पर आतंकी हमले हो चुके हैं, जिनमें बड़ी तादाद में श्रद्धालु मारे गए. कभी अफगानिस्तान भी सूफी पीर औलिया और दरवेशों का केंद्र था मगर वहाबी इस्लाम के अनुयायी तालिबान की क्रूरता ने उन्हें जिंदा नहीं रहने दिया.

सदियों से पाकिस्तान सूफी संतों की जमीन रहा है. इस्लाम की यह रहस्यमयी और सहनशील धारा है, जिसकी रस्में सम्मोहित करने वाली हैं. लोग संगीत की थाप पर झूमके नाचते हैं, कव्वाली गाई जाती हैं.  आज भी इसे मानने वाले करोड़ों की संख्या में हैं. लेकिन कट्टर-इस्लाम के विस्तार के साथ, सूफीवाद का दायरा कम हो रहा है. लेकिन  तहरीके तालिबान जैसे वहाबी संगठन इबादत के इस तरीके पर आगबबूला हैं. दरगाह, इमाम, सूफी पीर, संगीत को वह गैर इस्लामी मानते हैं. इसीलिए सूफी दरगाहें अब उनके निशाने पर हैं. दरअसल सूफी पाकिस्तान में अल्पसंख्यक नहीं बहुसंख्यक है. कोई भी राजनीतिक पार्टी उनके सहयोग के बिना सरकार नहीं चला सकती.



असल में सूफी पाकिस्तान ही नहीं सारे भारतीय उपमहाद्धीप में मुस्लिमों में बहुसंख्यक हैं. उन्हें बरेलवी भी कहा जाता है. क्योंकि उनकी मुख्य दरगाह बरेली में है. हकीकत यह है कि बरेलवी कभी राजनीतिक तौर पर संगठित नहीं हो पाए. यही कारण  है कि उनके प्रतिद्वंद्वी संख्या में कम होने के बावजूद उनसे ज्यादा संगठित हैं. कई लेखक मानते है यह सूफियों की सत्ता का प्रति उपेक्षा के रवैया  का ही नतीजा है; यही वजह है कि वे वहाबियों का निशाना बन रहे हैं. दुनिया के सभी बड़े आतंकवादी संगठन जैसे इस्लामिक स्टेट, अल कायदा, तालिबान, बोको हराम और अल शबाब आदि वहाबी हैं. तालिबान नामक भस्मासुर को पाकिस्तान ने ही पाल-पोसकर बड़ा किया था. उसी का ही पाकिस्तानी संस्करण है तहरीक-ए -तालिबान (टीटीके) पाकिस्तान. यह भस्मासुर अब पाकिस्तान को ही भस्म करने पर तुला है. हाल ही में  लाहौर में हुए आतंकी हमले ने साबित कर दिया कि  टीटीके (पाकिस्तान) के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा बन चुका है.

हालात इसलिए भी बदतर हो गए हैं कि पाकिस्तान में आईएस की एंट्री हो गई है. उसका अपना तो प्रभाव ज्यादा नहीं है मगर वह टीटीके  के कुछ संगठनों और शिया विरोधी आतंकी संगठन लश्करे झंगवी से साठ-गांठ कर पाकिस्तान में आतंकी हमलों को अंजाम देता है. पिछले कुछ समय में वहाबी संप्रदाय इस्लाम में तेजी से उभरा है. उसके संस्थापक मोहम्मद इब्न-अब्दुल-वहाब ने एक-एक कर इस्लाम में विकसित होती परंपराओं को ध्वस्त करना शुरू किया और उसे इतना संकीर्ण रूप दे दिया कि उसमें किसी तरह की आजादी और आपसी  मेलजोल की गुंजाइश ही न रहे. कुरान और हदीस से बाहर जो भी है उसको नेस्तनाबूद करने का बीड़ा उसने उठाया. इस कारण वह दरगाहों और मजारों की पूजा आदि गैर इस्लामी मानता है और उसे खत्म करना चाहता है.

इस कारण वह शियाओं और सूफियों का घोर विरोधी है. बाकी आतंकी संगठनों की तरह आईएस भी  एक वहाबी आंदोलन है, जो \'शुद्ध इस्लाम\'  पर विश्वास करता है. उसके मुताबिक   इस्लाम की पहली पीढ़ी यानी मोहम्मद पैगम्बर और उनके साथियों की सोच और  तरीके ही \'शुद्ध इस्लाम\' है. इसमें किसी तरह का संशोधन करने का मतलब है कि आप इस्लाम के मूल रूप की शुद्धता पर विश्वास नहीं करते. उसका मानना है कि शिया और सूफी अल्लाह के बजाय इमाम और पीरों की  दरगाहों की इबादत करते हैं, जो कुफ्रहै और कुफ्रकी सजा है मौत. आतंकी हमलों के जरिये यही सजा वह उन्हें दे रहा है. पाकिस्तान की सरकार असहाय बनकर सब देख रही है.

 

 

सतीश पेडणेकर


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