गणतंत्र : तंत्र अहम, गण हाशिये पर
इस साल जब राजधानी में गणतंत्र दिवस समारोह के आयोजन की तैयारियां शुरू हुई थीं, उसी समय दिल्ली के अखबारों में दो और खबरें देखने को मिली थीं.
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एक खबर यह थी कि प्रधानमंत्री के निर्देश पर एम्स में एक गरीब बच्चे को इलाज के लिए दाखिल किया गया जो मस्तिष्क के किसी गंभीर रोग से ग्रस्त था. उसके पिता ने अपनी आर्थिक स्थिति का हवाला देते हुए प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखा था. करुणा के आधार पर प्रधानमंत्री के कार्यालय से उस पत्र पर तुरंत कार्रवाई की गई. एम्स में बच्चे का इलाज शुरू हो गया.
दूसरी खबर यह थी कि बैंकों में पांच सौ और हजार के पुराने नोटों की अदला-बदली की तारीख खत्म होने के तीन-चार रोज बाद एक महिला कुछ पुराने नोट ले कर रिजर्व बैंक पहुंची थी. लेकिन उसे सुरक्षा कर्मिंयों ने गेट के भीतर नहीं घुसने दिया. बहुत चिरौरी करने के बावजूद जब उसकी किसी ने नहीं सुनी तो नाराज और बदहवास होकर उसने वहीं गेट के सामने अपने सारे कपड़े उतार दिए. तमाशाबीन बने लोगों को वह दृश्य सहन नहीं हुआ और किसी ने पुलिस को खबर की. पुलिस आई और उसे उठा कर ले गई. वह भी गरीब ही थी, शायद निरक्षर और बेसहारा भी.
भारत एक बहुत बड़ा देश है. इस तरह की अनेकों घटनाएं यहां के शहरों और गांवों में रोजाना घटती रहती हैं. जिस तरह से उन्हें भुला कर हम अपने रोजमर्रे के कामकाज में लग जाते हैं, उन दोनों घटनाओं का भी कोई हिसाब-किताब नहीं रखा जा सका. सोशल मीडिया भी सोडा वॉटर की बोतल की तरह एक-दो रोज झाग फेंकने के बाद शांत हो गया. लेकिन आज जब हम इतने जोर-शोर से अपने इस गणतंत्र दिवस समारोह का आयोजन कर रहे हैं, तो उन दोनों घटनाओं का जिक्र जरूरी है. उनमें हमारे गणतंत्र का चरित्र परिलक्षित होता है.
आजादी के बाद हमने अपने लिए जिस गणतंत्र को विकसित किया है, उसमें ‘तंत्र’ ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है, और ‘गण’ निरंतर हाशिए पर धकेले जा रहे हैं. गणतंत्र का क्या अर्थ है? -एक ऐसा तंत्र, शासन की एक ऐसी मशीनरी जो गण के लिए यानी आम जन के लिए काम करती हो. जो आम जन का सम्मान करती हो. जो आम जन के प्रति जवाबदेह हो. सिर्फ तभी नहीं जब वह जन एक समूह के रूप में उसके सामने उपस्थित हो, तब भी जब वह नितांत अकेला और असहाय पड़ जाए.
प्रधानमंत्री कार्यालय से जिस बीमार बच्चे को सहायता दी गई, वह प्रधानमंत्री की निजी पहल के कारण दी गई. उनमें करुणा है, इसलिए एक मजबूर पिता की याचना उन्हें छू गई. यह तंत्र द्वारा की गई पहल नहीं थी, एक व्यक्ति द्वारा की गई पहल थी. प्रधानमंत्री के पास रोजाना ऐसी अनेकों चिट्ठियां आती होंगी. हर चिट्ठी को इतनी तवज्जो नहीं मिल पाती. हर बीमार बच्चे को इतनी आसानी से मदद नहीं मिल जाती या फिर मोदी जी की जगह कोई दूसरा प्रधानमंत्री होता तो शायद उसे उस बीमार बच्चे का हाल उतना विचलित नहीं करता. उसकी जगह वह अपनी करु णा किसी अनाथ लड़की या किसी दिव्यांग दंपति पर बरसाता. यह शीर्ष पद पर बैठे व्यक्ति की करु णा है, हमारे तंत्र का मानवीय व्यवहार नहीं.
इसके दूसरे पहलू पर भी गौर किया जाए. प्रधानमंत्री भी आखिर एक इंसान होता है. उसके काम करने की मानवीय सीमाएं हैं. ऐसी हर चिट्ठी को वह खुद नहीं पढ़ सकता. सबके लिए वह खुद अस्पतालों को नहीं लिख सकता. तब गरीब और मजबूर जनता की भलाई के लिए प्रधानमंत्री सुशासन की अपनी नीति के तहत एक ऐसा विभाग बनाता है, जो इस काम को देखे. समझ लीजिए कि हमारा स्वास्थ्य मंत्रालय वही विभाग है. लेकिन अपने देश में स्वास्थ्य सेवाओं का हाल आप देख रहे हैं. यहां एक औरत अस्पताल के बाहर फुटपाथ पर बच्चे को जन्म देती है, क्योंकि उसे अस्पताल में दाखिला नहीं मिलता.
गांव में बच्चा उलटी और दस्त से मर जाता है, क्योंकि वहां के प्राइमरी हेल्थ सेंटर पर चार दिन से ताला लगा है. जन कल्याण के लिए जब भी कोई विभाग बनता है, वह एक अमानवीय तंत्र में बदल जाता है. वहां नेता का दबाव हो, पैसे का प्रभुत्व हो, किसी से जान-पहचान या रिश्तेदारी हो, तभी आपकी किसी व्यक्तिगत परेशानी की सुनवाई हो सकती है अन्यथा आपको तंत्र के नियमों के अनुसार क्यू में खड़े हो कर अपनी बारी का इंतजार करना होगा. उस क्यू में आपके साथ क्या होता है, उसके लिए तंत्र न ही संवेदनशील है और न जवाबदेह वर्ना ब्रेन ट्यूमर से मर रही एक महिला को एम्स से ऑपरेशन के लिए 2020 की तारीख नहीं मिलती और जेलों में ऐसे लोग नहीं बंद होते, जिनका दसियों साल तक मुकदमा ही नहीं खुलता.
आपको क्या लगता है, क्या रिजर्व बैंक के सामने अपने कपड़े उतारती स्त्री को थाने ले जाने के अलावा इस तंत्र के पास और कोई विकल्प नहीं हो सकता? क्या रिजर्व बैंक के उस दफ्तर में बैठा कोई अधिकारी इतना सक्षम नहीं है, जो ऐसी वारदात सुन कर अपनी कुर्सी से उठे और उस महिला को उसकी समस्या के समाधान का आासन दे सके. क्या यह घटना किसी की करु णा या मानवीय पहल की हकदार नहीं है? सब कुछ संभव है, पर हमारा यह ‘तंत्र’ जनगण के प्रति संवेदनशील और जवाबदेह नहीं है. इलेक्शन के समय वोट दे कर अपने जन प्रतिनिधियों का चुनाव कर लेना, उन प्रतिनिधियों का सरकार बना लेना, उस सरकार का जन कल्याण की नीतियां बना देना और उन नीतियों को लागू करने की जिम्मेदारी एक संवेदनहीन मशीनी तंत्र को सौंप देना-यह गणतंत्र को बहुत ही संकुचित बना देना है. दुर्भाग्य से आजादी के बाद के इन सात दशकों में हमने ऐसे ही तंत्र के विकास को अपनी उपलब्धि मान लिया है.
हमें उस गणतंत्र का सपना देखना चाहिए जिसमें हमारा तंत्र हर गण के सामने नतमस्तक हो, चाहे वह निरक्षर हो, गरीब हो, अपंग हो. वह इस राष्ट्र का एक सम्मानित नागरिक है, और यह तंत्र उसी के लिए बनाया गया है. उसी की वजह से आप ऑफिस की कुर्सी पर बैठते हैं, वेतन पाते हैं या नीली बत्ती वाली गाड़ी में घूमते हैं. उसे खुद किसी की कृपा का मोहताज क्यों होना चाहिए. उसे अपना दुखड़ा सुनाने के लिए प्रधानमंत्री को पत्र लिखने के लिए मजबूर क्यों होना चाहिए. उसे अपनी बात कहने के लिए जुलूस बना कर आने की नौबत क्यों आनी चाहिए.
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