राजनीति : जाति जोड़ो पर जोर

Last Updated 25 Jan 2017 03:56:42 AM IST

उत्तर प्रदेश में इस बार हर बड़ा दावेदार कहने को तो जाति तोड़ो मगर असलियत में जाति जोड़ो की मुहिम में लगा है.


राजनीति : जाति जोड़ो पर जोर

विकास के बहाने जाति नहीं, वर्ग पर जोर देने का यह नया अभियान एक नई हकीकत सामने ला रहा है. शायद सभी को एहसास हो गया है कि पुराने जातीय समीकरण अब कारगर नहीं रहे या उनके सहारे अब और आगे नहीं जाया जा सकता. इसलिए जाति जोड़ो की इस मुहिम में कौन कितना सफल हो पाता है, शायद उसी से इस बार लखनऊ की गद्दी का फैसला होने वाला है.

अखिलेशवादी समाजवादी पार्टी ने अपने जनाधार को आश्वस्त करने और उसे कुछ व्यापक बनाने के लिए कांग्रेस से हाथ मिलाया है. बसपा की बहनजी लंबे अरसे से एक नए तरह के दलित-मुस्लिम गठजोड़ को आकार देने की कोशिश में लगी हैं. भाजपा तो अपने परंपरागत ब्राह्मण-बनिया वोटबैंक की परवाह करना छोड़ कर आगे बढ़ गई है. अपने जाति समीकरणों से आगे जाने या नया समीकरण तैयार करने की यह मजबूरी बेशक 2014 के लोक सभा चुनाव के नतीजों से पैदा हुई है. पिछले लोक सभा चुनाव ने साबित कर दिया कि जाति और समुदाय के आधार पर बनाए ढांचे नये हालत में विसनीय नहीं रहे. वजह लोग नये आर्थिक हालात से उपजी नई तरह की राजनीति की तलाश में हैं. पिछले लोक सभा चुनाव में भाजपा और खासकर नरेन्द्र मोदी के पक्ष में लहर भी शायद इसी तलाश का नतीजा थी. लेकिन केंद्र में तीन साल के राजकाज से जमीन पर खास असर पैदा करने में नाकामी से लोगों में मोहभंग की स्थिति है.

इसी से निजात पाने के लिए मोदी सरकार ने नोटबंदी को अपना अस्त्र बनाया. मोदी की लगातार गरीब हितैषी कहलाने की कोशिशें भी लोक सभा चुनाव में हासिल उस अतिरिक्त वोट बैंक को अपने पाले में रखने के लिए हो सकती हैं, जिसके बिना भाजपा के लिए देश के अहम सियासी राज्य में अपना झंडा बुलंद करना आसान नहीं है. लोक सभा चुनाव में भाजपा को मुजफ्फरनगर दंगों के बाद सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का भी भारी लाभ मिला था. लेकिन इस बार उसकी ऐसी कोशिशें कारगर नहीं हैं. सो, भाजपा को पश्चिम उत्तर प्रदेश और रूहेलखंड और बुंदेलखंड के इलाकों से उतनी उम्मीद नहीं दिख रही है. पश्चिम में मोटे तौर पर गुर्जर तो भाजपा के साथ हैं. मगर यही बात जाटों के बारे में नहीं कही जा सकती.

राजनीति : जाति जोड़ो पर जोर

दंगों से भाजपा की ओर आए जाट केंद्र सरकार से मोहभंग के कारण अब पाला बदल सकते हैं. इसीलिए अजित सिंह के रालोद की भी कुछ संभावनाएं बढ़ती दिख रही हैं. इसी बिना पर वे सपा से कड़ा मोलतोल कर रहे थे. मगर सपा को लगा कि शायद मुसलमानों में इससे भ्रम की स्थिति पैदा होगी. पश्चिम में बसपा का जोर भी सबसे अधिक है. यहां मायावती के सिपहसालार नसीमुद्दीन सिद्दिकी के बेटे अफजाल अरसे से सक्रिय हैं. इसी इलाके में उन्होंने अपने भाईचारा सम्मेलन का भी फोकस बनाए रखा है. बसपा ने मुसलमानों को सबसे अधिक 97 सीटें दी हैं, जिनमें अधिक इसी इलाके की हैं. यही नहीं, बसपा ने एक और गणित यह लगाया है कि अधिक-से-अधिक टिकट पिछड़े या पसमांदा मुसलमानों को दिए जाएं. ये पिछड़े मुसलमान अगड़े मुसलमानों से अलग लाइन भी ले सकते हैं. यह फामरूला खासकर बिहार में नीतीश कुमार ने कारगर ढंग से अमल में लाकर दिखाया है.

अगड़े मुसलमानों का रुझान अभी भी सपा की ओर बताया जाता है. अखिलेश ने बेशक मुसलमानों में भरोसा पैदा करने के लिए ही कांग्रेस से गठजोड़ किया है. किंतु उन्हें यह अहसास भी है कि वे सिर्फ मुसलमान-यादव फॉमरूले पर आश्रित नहीं रह सकते. कांग्रेस से गठजोड़ के बाद वे कुछ ऊंची जातियों और खासकर बनिया वोट बैंक में भरोसा दिला सकते हैं. नोटबंदी के बाद खासकर बनिया भाजपा से नाराज बताए जाते हैं. अखिलेश यह भी तय कर रहे हैं कि जाति की गणित को वे सही से हल कर लें. उनकी कैबिनेट ने 22 दिसम्बर को एक संकल्प पारित किया, जिसके मुताबिक 17 पिछड़ी उपजातियों को अनुसूचित जातियों में बदलने पर विचार किया जाएगा.

आबादी में करीब 14 फीसद हिस्सा रखने वाली इन उपजातियों के सहारे कुछ चुनिंदा सीटों पर चुनावी खेल पलट सकता है. यही ध्यान में रखकर अखिलेश ने अग्रणी कुर्मी नेता नरेश उत्तम को राज्य में पार्टी का अध्यक्ष बनाया. फिर भी, नोटबंदी से अगर गरीब-अमीर की फिजा तैयार होती है; उससे उसे लोक सभा चुनाव की तरह अति पिछड़ों (करीब 6 फीसद) और गैर-जाटव दलितों (करीब 5 प्रतिशत) के वोट हासिल हो जाते हैं और उसमें ऊंची जातियों के करीब 12 प्रतिशत वोट जुड़ जाते हैं तो खासकर उत्तर प्रदेश में पूरब (150 सीटें) और मध्य (110 सीटें) में करिश्मा हो सकता है.

पूरब और मध्य में ही सबसे ज्यादा सीटें हैं और वहां गैर-यादव पिछड़ों और गैर-जाटव दलितों की आबादी इतनी अधिक है कि वे किसी के पक्ष में पलड़ा झुका सकते हैं. इन्हीं पर हाल के दौर में भाजपा फोकस भी कर रही है, ताकि अपने जनाधार को व्यापक बनाया जा सके. लेकिन यह भी गौर करने की बात है कि मोदी इन चुनावों में मुद्दा नहीं हैं, न ही नोटबंदी का शुरुआती असर बचा है. इसके विपरीत नोटबंदी से रोजगार वगैरह गंवाने और काम-धंधे चौपट होने का दंश भी गहराने लगा है. फिर, भाजपा के पास कोई दूसरा चुनावी चेहरा भी नहीं है. इसका असर यह हुआ है कि अखिलेश अपनी कोशिशों के जरिए आसानी से एंटी-इनकंबेंसी को दूर भगा चुके हैं.

उन्होंने घोषणा-पत्र में भी हर जाति-वर्ग को समेटने वाले कार्यक्रमों का ऐलान किया है.  लेकिन यह भी सही है कि अखिलेश की समाजवादी पार्टी और भाजपा दोनों को टक्कर बसपा की मायावती से ही लेना है. मायावती ने मुलायम के भरोसेमंद अंबिका चौधरी को अपनी पार्टी में लेकर यह संकेत दे दिया है कि वे सपा की कलह से बंटे पार्टी के वोटबैंक को अपने पाले में समेट सकती हैं. पश्चिम में सपा के कई असंतुष्टों को अजित सिंह ने भी टिकट देकर मुश्किल पेश किया है. इसलिए ज्यादातर सीटों पर इस त्रिकोणीय लड़ाई के नतीजे दिलचस्प होने वाले हैं. अभी तो यही कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश का मैदान खुला है. पलड़ा किसी ओर भी झुक सकता है.

हरिमोहन मिश्र
लेखक


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