सेज : दुरुपयोग पर सख्त अदालत

Last Updated 25 Jan 2017 03:43:13 AM IST

यह स्वागतयोग्य है कि उच्चतम न्यायालय ने विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड) की बिना उपयोग की गई जमीन पर कड़ा रुख अख्तियार करते हुए केंद्र व सात राज्य सरकारों (आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, पंजाब, पश्चिम बंगाल और कर्नाटक) से जवाब-तलब किया है.


सेज : दुरुपयोग पर सख्त अदालत

न्यायालय ने यह नोटिस गैर सरकारी संस्था ‘एसईजेड फॉर्मर्स प्रोटेक्शन एसोसिएशन’ द्वारा दायर याचिका पर जारी किया है, जिसमें कहा गया है कि 2010 से 2015 के बीच विभिन्न राज्य सरकारों ने कुल 4,842 हेक्टेयर जमीन एसईजेड के लिए अधिसूचित की लेकिन इसमें से सिर्फ 362 हेक्टेयर जमीन ही एसईजेड के लिए उपयोग किया गया है. 80 फीसद जमीन का उपयोग नहीं हुआ है और कंपनियां इसे गिरवी रखकर बैंक से कर्ज ले रही हैं और इस जमीन का उपयोग अन्य दूसरे कामों में कर रही हैं. याद होगा अभी गत वर्ष ही उद्योग संगठन एसोचैम द्वारा भी खुलासा किया गया कि देश में कुछ 416 मंजूरी प्राप्त सेज हैं, जिनमें महज 202 में औद्योगिक इकाईयां काम कर रही हैं और शेष 214 में से 113 की अभी तक अधिसूचना तक जारी नहीं हुई है.

गत वर्ष कैग ने भी खुलासा किया था कि देश में सेज के लिए 45635.63 हेक्टेयर जमीन की अधिसूचना जारी हुई. लेकिन कामकाज सिर्फ 28488.49 हेक्टेयर पर शुरू हुआ. कंपनियों ने सेज के नाम पर सरकार से बड़ी तादाद में जमीन हासिल की. मगर उस अनुपात में जमीन का इस्तेमाल सेज के लिए नहीं किया गया. अर्थात जमीन की कीमत बढ़ने के बाद सेज बनाने की अधिसूचना वापस लेकर जमकर मुनाफा कमाया गया. उदाहरण के तौर पर देश के छह राज्यों-आंध्र प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र ओडिसा और पश्चिम बंगाल में 39245.56 हेक्टेयर भूमि सेज के रूप में अधिसूचित हुई, जिनमें से 5402.22 हेक्टेयर भूमि की अधिसूचना रद्द कर उसका इस्तेमाल अन्य व्यावसायिक उद्देश्य के लिए किया गया. ऐसा नहीं है कि सरकार को इसकी जानकारी नहीं है. लेकिन कंपनियों के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं हो रही है यह अचंभित करने वाला है.

जबकि सरकार सेज को बढ़ावा देने के लिए 83104.76 करोड़ रुपये की छूट भी दे रखी है. सरकार को तकरीबन 1150.06 करोड़ रुपये का नुकसान हो चुका है. इकोनामिक सव्रे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट भी कह चुकी है कि देश में उदारीकरण की नीतियां लागू होने के बाद 1990 से लेकर 2005 के बीच लगभग 60 लाख हेक्टेयर खेती की जमीन का अधिग्रहण हुआ है और इनमें से अधिकांश का उपयोग गैर-कृषि कायरे में हो रहा है. अपनी जमीन गंवाने के बाद किसानों के पास जीविका का कोई साधन नहीं रह गया है और वे  खानाबदोशों की तरह जीवन गुजार रहे हैं.

विस्थापित किए गए किसानों के लिए सरकार के पास कोई ठोस पुनर्वास नीति नहीं है. न ही उन्हें रोजी-रोजगार से जोड़ने के लिए कोई कारगर तरीका अपनाया जा रहा है. नतीजा कल तक जो किसान थे वे खेतिहर मजदूर बनते जा रहे हैं. कृषि की दशा कितनी दयनीय है इसी से समझा जा सकता है कि 2001 में देश में 12 करोड़ 73 लाख किसान थे, जिनकी संख्या 2011 में घटकर 11 करोड़ 87 लाख रह गई.  इसके लिए कृषि योग्य जमीनों का अधिग्रहण, प्रकृति पर आधारित कृषि, देश के विभिन्न हिस्सों में बाढ़ एवं सूखा का प्रकोप, प्राकृतिक आपदा से फसल की क्षति और ऋणों का बोझ कई कारण जिम्मेदार हैं.

पिछले एक दशक के दौरान महाराष्ट्र में सर्वाधिक 7 लाख 56 हजार, राजस्थान में 4 लाख 78 हजार, असम में 3 लाख 30 हजार और हिमाचल में एक लाख से अधिक किसानों ने खेती को तिलांजलि दी है. इसी तरह उत्तराखंड, मेघालय, मणिपुर और अरुणाचल जैसे छोटे राज्यों में भी किसानों की संख्या घटी है. गौर करें तो इस दौरान देश में कृषि मजदूरों की संख्या बढ़ी है. आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2001 में जहां 10 लाख 68 हजार कृषि मजदूर थे, उनकी संख्या 2011 में बढ़कर 14 करोड़ 43 लाख हो गई. फिर इस निष्कर्ष पर पहुंचना गलत नहीं कि खेती करने वाले किसान ही खेतिहर मजदूर बनने को मजबूर हैं. गौरतलब है कि एक हजार हेक्टेयर खेती की जमीन कम होने पर 100 किसानों और 760 खेतिहर मजदूरों की आजीविका छिनती है. उचित होगा कि सरकार विशेष आर्थिक क्षेत्र के नाम पर कृषि योग्य जमीनों की लूटपाट बंद करे.

अरविंद जयतिलक
लेखक


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment