मुद्दा : महंगे इलाज का मकड़जाल
जब सवाल मरीज की जान बचाने का हो, तो अस्पताल मंदिर माने जाते हैं और डॉक्टर भगवान.
मुद्दा : महंगे इलाज का मकड़जाल |
ऐसे वक्त में दवा-ऑपरेशन आदि मदों में चुकाई जा रही कीमत पर सवाल उठाना समझदारी नहीं समझा जाता है. लेकिन जब यह पता लगे कि दिल के मरीजों में लगाए जाने वाले स्टेंट की कीमत असल में 900 फीसद तक कम होती है, बावजूद इसके उसे अनाप-शनाप दामों पर बेचकर अस्पताल भारी कमाई करते हैं, तो हमारा चौंकना स्वाभाविक ही है.
हाल में नेशनल फार्मास्युटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी (एनपीपीए) ने इस धांधली का खुलासा करते हुए बताया है कि स्टेंट की खरीदारी में सबसे ज्यादा मार्जिन अस्पतालों का होता है, जो 650 फीसद तक होता है. ऐसे में अमूमन आठ हजार रुपये की लागत वाला स्टेंट अधिकतम 1.90 लाख रुपये तक की कीमत पर मरीजों को बेचा जाता है. स्टेंट का काम दिल की मरीज की धमनी को खून के बहाव को जारी रखने के लिए किया जाता है.
हृदय की जिस धमनी में रुकावट होती है, सर्जरी से उसे खोलने के बाद उसमें स्टेंट डाला जाता है जो वर्षो तक रक्त-बहाव को सुचारु रखता है. एनपीपीए की रिपोर्ट के मुताबिक निर्माता कंपनियों को तो स्टेंट की बिक्री से ज्यादा मुनाफा नहीं होता, लेकिन वितरक और अस्पताल इसमें जमकर चांदी कूटते हैं. वितरकों का औसत मार्जिन 13 से 200 फीसद और अस्पतालों का 11 से 654 फीसद तक होता है. साफ है ज्यादातर मामलों में अस्पताल और कार्डियोलॉजिस्ट ही स्टेंट की कीमत तय करते हैं. अक्सर एंजियोप्लास्टी या बाईपास सर्जरी के वक्त वे मरीज के तीमारदारों को इसके लिए प्रेरित करते हैं कि वे धमनी की रु कावट दूर करने के लिए बढ़िया-से-बढ़िया स्टेंट डलवाएं और उसकी कीमत पर समझौता न करें.
मरीजों-उनके तीमारदारों को यह लगता तो रहा है कि उनसे स्टेंट की गैरवाजिब कीमत वसूली जा रही है. लेकिन ऑपरेशन टेबल पर सर्जरी करवा रहे मरीज की जान बचाने की कोशिश में वे अस्पताल और डॉक्टरों से कोई तर्क नहींकरते, जिसका नाजायज फायदा उठाया जाता रहा है. यह जानकर कोई भी चकित हो सकता है कि वर्ष 2016-17 में स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च के लिए जो राशि (20,511 करोड़ रुपये) केंद्रीय बजट में रखी गई है, उसका 40 फीसद हिस्से के बराबर रकम हम भारतीय सिर्फस्टेंट पर ही खर्च कर रहे हैं. इस आकलन का आधार वर्ष 2015 में पूरे देश में बेचे गए छह लाख स्टेंट हैं, जिनमें से 1.3 लाख स्टेंट का खर्च सरकारी इंश्योरेंस कंपनियों ने उठाया.
जबकि 4.40 लाख स्टेंट की कीमत लोगों ने निजी तौर पर चुकाई. कुल मिलाकर स्टेंट पर खर्च 3,656 करोड़ रु पये बैठा. इस रकम में 15 फीसद के इजाफे का अनुमान लगाते हुए वर्ष 2016 में स्टेंट की मद में 4200 करोड़ रुपये खर्च का अनुमान लगाया गया, जो 2016-17 में बढ़कर 7600 करोड़ (अनुमानत:) पहुंच रहा है. इस गोरखधंधे के खुलासे के बाद अब सरकार कह रही है कि इसका प्रबंध किया जा रहा है कि अस्पताल दिल के मरीजों से स्टेंट की वाजिब कीमत ही ले पाएं.
असल में, सरकार यह तय करने जा रही है कि स्टेंट की अधिकतम कीमत कितनी होनी चाहिए, ताकि अस्तपाल इस मद में तय कीमत से ज्यादा वसूल न सके. लेकिन सवाल है कि क्या दवा लॉबी और अस्पताल अपनी अंधाधुंध कमाई के ये रास्ते बंद होने देंगे? कहने को तो सरकार अपनी ओर से प्रयास कर रही है कि दवाओं, उपकरणों और इलाज पर होने वाले खर्च के नियंत्रण की कोई व्यवस्था लागू हो सके ताकि लोगों को सस्ता इलाज मिल सके. पर एक तो खुद दवा उद्योग ऐसे नियंत्रण के खिलाफ सख्त जान पड़ता है और दूसरे बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियां महंगे पेटेंट का हवाला देकर दवाओं की कीमतों में बढ़ोत्तरी भी करती रही है.
ऐसे में सवाल उठता है कि उन मरीजों के इलाज का क्या होगा जो न तो बीमारी में बेहद महंगी दवाएं खरीद सकते हैं और न उनके पास मेडिकल इंश्योरेंस है. पिछले वर्ष एड्स-कैंसर व अन्य जीवाणुजनित बीमारियों की रोकथाम में इस्तेमाल होने वाली दवा डाराप्रिम की महीने भर की खुराक की कीमत महंगे पेटेंट का हवाला देकर साढ़े 13 डॉलर से बढ़ाकर 750 डॉलर कर दिए जाने के वाकये से साफ है कि दवा उद्योग और अस्पताल किस हद मनमानी करते हैं. दवा कंपनियां और अस्पताल सारे खर्च की भरपाई मरीजों से ही करते हैं और उन्हें ऐसा करने की छूट सरकार ही देती है.
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