आरबीआई : गवर्नर और गवर्नमेंट के दायित्व

Last Updated 20 Jan 2017 05:12:49 AM IST

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि जब ‘पार्लियामेंटरी स्टैंडिंग कमेटी ऑन फाइनेंस’ के समक्ष आरबीआई के गवर्नर उर्जित पटेल से सवाल किए गए तो उन सवालों के जवाब उनके पास थे मगर उन्होंने जानबूझकर उनका जवाब देना उचित नहीं समझा.


आरबीआई : गवर्नर और गवर्नमेंट के दायित्व

वहीं दूसरी तरफ इस बात को भी मानना होगा कि सम्मानित सदस्यों द्वारा किए गए सवालों का उद्देश्य राजनातिक भी हो सकता है.

लोकतांत्रिक व्यवस्था में संस्थाओं का संसद के प्रति उतरदायी होना अत्यंत आवश्यक है. इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती. वहीं, जैसा मनमोहन सिंह ने आरबीआई के गवर्नर का बचाव करते हुए कहा कि हर सवाल का जवाब देना आवश्यक नहीं होता है, उन्होंने  उन संस्थओं के अधिकार का भी बचाव किया. परंतु सोचने वाली बात यह है कि आखिर इस स्थिति के लिए, जिसे किसी भी सूरत में स्वस्थ नहीं कहा जा सकता, कौन जिम्मेदार है? जब उर्जित पटेल से यह पूछा गया कि बताईये स्थिति कब तक सामान्य हो पाएगी तो उसका जवाब वो नहीं दे पाए. इसका कारण यह है कि वो कोई राजनेता नहीं है कि इस तेजी से बदलते घटनाक्रम में कोई भी वक्तव्य दे देते. वाकई स्थिति का सामान्य होना अभी अस्पष्ट ही है. कुछ लोग कह सकते हैं स्थिति काफी कुछ सामान्य है अब, क्योंकि वो उन पचास दिनों से उनकी तुलना कर रहे होते, जिसके मुकाबले अब स्थिति काफी ठीक नजर आ रही है, आम जनता के हिसाब से.

डॉ. मनमोहन सिंह जो स्वयं आरबीआई के गवर्नर रह चुके हैं, इस बात को भलीभांति समझते हैं कि आरबीआई गवर्नर की क्या जिम्मेदारियां होती हैं और पद की गरिमा का क्या सम्मान होता है? यह कोई पार्लियामेंट की राजनैतिक बहस नहीं थी, जैसा की कुछ सदस्यों ने इस मौके पर, इसी बहाने, अपरोक्ष रूप से, सरकार को घेरने की कोशिश की. उर्जित पटेल को किसी भी मुश्किल स्थिति से बचाने के लिए और आरबीआई की प्रतिष्ठा पर कोई आंच न आने देने के लिए मनमोहन सिंह ने पार्टी पक्ष से ऊपर उठ कर जो हस्तक्षेप किया वो बहुत सराहनीय है. वहीं सरकार ने जिस प्रकार बिना समुचित व्यवस्था के नोटबंदी का कदम उठाया, उस कदम ने इतनी सम्मानित संस्था की छवि को जो धूमिल किया, उनको कटघरे में खड़े  करने की आवश्यकता है. वहीं इन विपक्षी पार्टयिों ने संसद के कार्य में बाधा डाल कर जो इस मुद्दे पर बहस नहीं होने दी, उनका भी दोष है. जिन सवालों को सरकार से किया जाना चाहिए था, उन सवालों को आरबीआई पर दाग कर बेमतलब का शोर-शराबा मचाने में कहीं न कहीं निहित राजनैतिक स्वार्थ भी है, जो अनजाने में अपनी ही बहुमूल्य संस्थाओं की छवि धूमिल करने में भूमिका निभा रहे हैं.

क्या आरबीआई की स्वायत्तता का यह अर्थ निकला जाए कि निर्वाचित सरकार के मुखिया के निर्णय को वो न मानती और नोटबंदी से इनकार कर देती  या फिर ये समझा  जाए कि वो इस  प्रकार से पहले ही नोट छापती कि वो तुरन्त उपलब्ध हो जाते.  मगर इसमें कई तरह की गोपनीयता और परिचालन के मसले खड़े हो जाते. असल बात तो ये है की, जो मैच मोदी जी ने ‘वनडे फॉर्मेट’ में खेलना चाहा वो ‘टेस्ट मैच’ में बदल चुका है और ये मैच अब लंबा चलेगा. यही कारण है कि नोटों की निकासी की सीमा को बढ़ाने के बारे में अभी कुछ कहा नहीं जा सकता. ऐसा तभी संभव होगा, जब सब खातों  की जांच हो जाए, संदिग्ध खाते फ्रीज हो जाएं या काला धन जमा कराने वाले अपनी आय को नई स्कीम में घोषित करके टैक्स जमा करा दें. अब चूंकि ये सब भविष्य के गर्भ में है. इसलिए अभी इन प्रश्नों के जवाब गवर्नर उर्जित पटेल दे नहीं सकते थे कि कब लिमिट बढ़ाई जाएगी निकासी की. एक सवाल और इसी प्रकार इस संदर्भ में यह भी रहा कि अब तक कितनी राशि के पुराने नोट जमा हुए बैंकों में?

इस सवाल के जवाब को देने में वाकई आरबीआई अभी पूरी तरह से तैयार नहीं है; क्योंकि जो भी संख्या गवर्नर बताएं वो प्रमाणिक होनी चाहिए, जबकि अभी समायोजन, दोहरी गणना की चूक, जाली मुद्रा की संख्या फाइनल हो रही है. गवर्नर से सवाल करते समय ‘पार्लियामेंटरी स्टैंडिंग कमेटी ऑन फाइनेंस’ के सदस्यों को यह ध्यान रखना चाहिए की ऐसे विषयों पर की जाने वाली चर्चाओं में राजनैतिक पूर्वाग्रहों को एक तरफ  रख कर बात की जानी चाहिए  ऐसी सेंसिटिव मीटिंग में यदि डॉ. मनमोहन सिंह सरीखे स्टेट्समैन न होते तो दिग्विजय सिंह के द्वारा उछाले गए सवाल ‘कि क्या बैंकों के फेल (रन ऑन द बैंक, जब सब जमाकर्ता अपना समस्त धन निकलने की होड़ में लग जाएं) होने का खतरा है यदि नोट निकासी की लिमिट हटा ली जाए तो?’ के जवाब में आरबीआई के गवर्नर का कुछ भी कहना बहुत संकट पैदा करता.

मनमोहन सिंह ने इस मौके पर हस्तक्षेप करते हुए कहा ‘आपका इस सवाल का जवाब देना आवश्यक नहीं.’  इस मीटिंग का सार सच पूछिए तो ये निकल कर आया कि हमारे देश में ऐसे  व्यक्तियों की कमी नहीं, जो हर विषय में राजनैतिक स्वार्थ ढूंढ लेते हैं. दूसरी ओर, ऐसे स्टेट्समैन भी कम नहीं हैं जो राजनैतिक पूर्वाग्रहों  से ऊपर उठकर अपने विचारों को रखते हैं एवं देश की संस्थाओं के मान एवं गौरव को बचाए रखने में गाहे बगाहे बिना झिझक आगे आ जाते हैं, जैसा डॉक्टर मनमोहन सिंह ने किया.

बुधवार को आरबीआई के गवर्नर ने चुनी हुई सरकार के मान की रक्षा की है. अब ये चुनी हुई सरकार के मुखिया की जिम्मेदारी है कि भविष्य में और अधिक सम्मान से इन संस्थाओं को देखें और उनकी सहमति हर विषय में अनिवार्य रूप से लें एवं असहमति को विरोध न समझें यदि कोई हो.

अनिल उपाध्याय
लेखक


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