कश्मीर : 19-20 जनवरी की वो रात..
रात के करीब दस बज चुके थे. शून्य से नीचे तापमान को सहन करने के लिए कांगड़ी में धीमे-धीमे सुलग रहा कोयला बस एकमात्र सहारा थे.
कश्मीर : 19-20 जनवरी की वो रात.. |
बिजली आज भी नहीं थी, पूरे घर में अंधेरा था. मिट्टी के तेल से भरे इस लालटेन की लौ को हम तीन लोग टकटकी लगाकर देख रहे थे. तभी दूर से आ रही आवाजों ने हमारा ध्यान खींचा. थोड़ी देर में ये आवाजें तेज होने लगी. हमारी खिड़की पर कुछ टकरा के गिरा. किसी ने पत्थरा मारा. हम तीन-मैं, मेरे पति और मेरी सास, सहम गए. थोड़ी ही देर में लाउडस्पीकरों से आवाजे गूंजने लगी.
ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था. चारों तरफ नारेबाजी तेज हो रही थी: भारत के कुत्तों कश्मीर छोड़ दो.काफिरों कश्मीर छोड़ दो.यहां क्या चलेगा निजामे मुस्तफा.कश्मीर को लेेंगे पंडित महिलाओं के साथ और बिना पंडित आदमियों के.. डर ने हमें जकड़ लिया. मैं रोने लगी. अब क्या होगा? अगर भीड़ ने हमला किया तो हम क्या करेंगे? सडक पर जैसे कि मौत का नाच चल रहा हो. ऐसा लग रहा था कि पुलिस और प्रशासन ने हमें शिकारियों के सामने निहत्था छोड़ दिया था. घाटी के हालात बेकाबू हो चुके थे.
पिछले कुछ महीनों में कई हिन्दुओं को मार दिया गया था. महिलाओं के साथ बदसलूकी की घटनाएं लगातार सुनने को मिल रही थी. इससे बचने के लिए हम हिन्दू महिलाओं ने साड़ी पहनना, बिंदी लगाना छोड़ दिया था. और अब इस रात में खुले तौर पर मस्जिदों से भीड़ को उकसाया जा रहा था. भय ने हम तीनों को कमरे के एक कौने में दुबककर बैठने के लिए मजबूर किया था. हजारों की तादाद में टिन के डब्बे बजने लगे. छतों पर लगे टिन की परतों को जोर-जोर से डंडे से पीटने की आवाजें आ रही थी. रात के दो बजे तक ऐसा ही चलता रहा. हमने अब जीने की आस छोड़ दी थी की तभी सायरन बजने लगे, सड़कों पर भाग-दौड़ होने लगी. बीएसएफ और सेना का काफिला शहर में आ रहा था. हमारे लिए आशा की किरण लेकर आ रहा था...’’ ये किसी कहानी का अंश नहीं है. यह सच्चाई है 27 साल पहले हुए उस घटनाक्रम की, जिसकी गवाह श्रीनगर में रहने वाली रजनी धर जैसे लाखों कश्मीरी हिन्दू हैं.
उस रात घाटी से अल्पसंख्क कश्मीरी पंडित समुदाय का पलायन शरू हुआ. उनके घर और जमीन जबरदस्ती उनसे छीन लिये गए. कट्टरपंथ और आंतकवाद के घिनौने मिशण्रने पूरे समुदाय को नष्ट कर दिया और इसके साथ ही खत्म हुई कश्मीर की वो छवि जो महात्मा गांधी ने कई दशक पहले देखी थी. 27 साल पहले हुए उस रात में इतना गदर हुआ कि हजारों हिन्दु परिवारों को वादी से पलायन करना पड़ा. उस संकट की घड़ी में बदसलूकी से बचने के लिए कई परिवारों ने तो अपनी बहू-बेटियों को मार देने का फैसला भी लिया था.
दशकों से साथ-साथ रह रहे मुस्लिम पड़ोसियों ने भी मुंह मोड़ लिया था. पुलिस और प्रशासन नदारद रहे. कई जगह तो टेलिफोन लाइने भी काटी गई थी. जगमोहन ने राज्यपाल पद की शपथ एक दिन पहले ही जम्मू में ली थी. रात में उनके घर पर कई फोन कॉल गए, जिसमें रोते-बिलखते सहमे हुए कश्मीरी पंडितों की गुहार और लाउडस्पीकरों से हो रहे नारेबाजी को सुनाया गया. इसके बारे में जगमोहन ने अपनी किताब में भी लिखा है. उनके ही आदेश पर शहर मे सेना को बुलाया गया. सेना के आने से कश्मीरी पंडीतो पर हो रहे हमले तो रुक गए लेकिन 20 जनवरी की भोर होते ही पलायन शुरू हो गया. किसी ने पंडितों को जाने से नहीं रोका. शायद ये एक खतरनाक प्लॉन का हिस्सा था, जिससे कश्मीर का रंग बदल गया.
दो प्रतिशत हिन्दू अल्पसंख्यक की आबादी वाले कश्मीर की तस्वीर बदल गई. 19-20 जनवरी 1990 की रात को भुलाया नहीं जा सकता. एक शांतिप्रिय अल्पसंख्क समुदाय पर उस रात हुए हमला के पीछे की साजिश अचानक नहीं बनी थी. इसकी शुरुआत साल भर पहले से हुई थी. आज 27 साल बाद कश्मीरी हिन्दुओं के साथ हुए अत्याचार की बात कोई नहीं कर रहा है. जो इस त्रासदी से गुजरे हैं उनकी एक ही आस है कि कश्मीरी पंडितों के उत्पीड़न और पलायन के षड्यंत्र के पीछे लोगों को बेनकाब किया जाए. 27 साल बीत चुके हैं. साक्ष्य मिटते जा रहे हैं. समय रुकता नहीं है पर स्याह रातें अब भी ताजा हैं. उस रात का सच क्या था और वारदात के पीछे कौन सी ताकतें थी, ये सच्चाई उजागर करना अनिवार्य है, ताकि इस पीड़ित-शोषित समुदाय को इंसाफ मिले.
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