रोहित वेमुला : जवाब मिलने बाकी हैं

Last Updated 19 Jan 2017 06:51:41 AM IST

सत्रह जनवरी को रोहित की मौत को एक साल पूरा हो गया.


रोहित वेमुला : जवाब मिलने बाकी हैं

पिछले साल ठीक इसी दिन हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के प्रतिभाशाली दलित पीएचडी स्कॉलर, रोहित ने अपने एक मित्र के होस्टल के कमरे में फांसी लगाकर, अपनी जान दे दी थी. बेशक, सिर्फ तथ्य के तौर पर देखें तो रोहित के आत्महत्या करने में किसी बहस की गुंजाइश नहीं थी. उसके अति-संवेदनशील और भावपूर्ण सुसाइड नोट के बाद तो रंचमात्र भी नहीं. इसके बावजूद, इस घटना के खिलाफ उठी विरोध और विक्षोभ की देशव्यापी लहर में अगर व्यापक रूप से इसे ‘आत्महत्या नहीं, संस्थागत हत्या’ कहा जा रहा था, तो यह अकारण नहीं था.

वैसे तो हरेक आत्महत्या ही एक हताशा चीख होती है. लेकिन रोहित को तो ठीक शिकार के घेरे जाने की शैली में, चारों ओर से घेर कर हताशा के उस मुकाम पर पहुंचाया गया था, जहां उसके जैसे कर्मठ और जुझारू नौजवान को भी, सिर्फ निजी तौर पर ही नहीं बल्कि एक वृहत्तर जनतांत्रिक आंदोलन के हिस्से के तौर पर भी, अपने सामने खड़ी ताकतों से निपटने का इसके सिवा कोई रास्ता नजर ही नहीं आया कि एक ही झटके में सारे झंझट से ही छुट्टी पा ले. सरल भाषा में कहें तो विश्वविद्यालय प्रशासन ने उनके लिए सामाजिक बहिष्कार की एक विश्वविद्यालय के संदर्भ में अनोखी, किंतु दलितों के लिए जानी-पहचानी सजा तजवीज की थी. यूजीसी की छात्रवृत्ति का भुगतान तो इससे भी महीनों पहले से रुका हुआ था. सामाजिक बहिष्कार की इस सरासर अन्यायपूर्ण और वास्तव में संविधानविरोधी सजा के विरुद्ध, विश्वविद्यालय परिसर में ही कई दिनों तक खुले में कैंप किए रहने के बाद ही, रोहित ने चरम हताशा का कदम उठाया था.

याद रहे कि रोहित की आत्महत्या तक पहुंचे सिलसिले की शुरुआत, इस दलित छात्र संगठन की एक पूरी तरह जनतांत्रिक गतिविधि पर हमले से हुई थी. मुजफ्फरनगर के दंगों के खिलाफ बनी फिल्म, ‘मुजफ्फरनगर बाकी है’ के दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रदर्शन पर, एबीवीपी के हमले के विरोध स्वरूप, इस दलित छात्र संगठन ने हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में इस फिल्म का प्रदर्शन करने की घोषणा की थी.

इसके साथ ही इस संगठन ने मुंबई बम कांड के आरोपी यकूब मेमन को फांसी दिए जाने पर विरोध भी जताया था. ठीक इन्हीं ‘अपराधों’ के लिए आरएसएस के छात्र बाजू एबीवीपी ने, जो केंद्र में मोदी सरकार आने से खुद को परिसर में सत्तारूढ़ छात्र संगठन मानकर चल रहा था, एएसए को खासतौर पर निशाने पर ले रखा था. इसी की परिणति, एबीवीपी के स्थानीय प्रमुख के उसके हॉस्टल के कमरे में घेरे जाने में हुई, जिसने उसके रोहित और उसके साथियों के खिलाफ मार-पीट की पूरी तरह से संदिग्ध शिकायत दर्ज कराने का रूप ले लिया. वास्तव में विश्वविद्यालय की पहली जांच में इस शिकायत को अगंभीर पाकर, दोनों पक्षों को चेतावनी देकर मामले को खत्म भी कर दिया गया. लेकिन, यह संघ परिवार को मंजूर नहीं हुआ.

केंद्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने एबीवीपी के नेता के साथ विश्वविद्यालय द्वारा अन्याय किए जाने की शिकायत करते हुए, मानव संसाधन विकास मंत्री को शिकायती पत्र लिख डाला, जिसमें हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय को ‘राष्ट्रविरोधी ताकतों का अड्डा’ घोषित कर दिया गया. तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री, स्मृति ईरानी ने भी बड़ी तत्परता से राष्ट्रविरोधी ताकतों के अड्डे  के खिलाफ हमला बोल दिया और विश्वविद्यालय प्रशासन को ताबड़तोड़ पांच चिट्ठियां हालात को सुधारने के लिए लिख डालीं. इसके साथ ही विश्वविद्यालय को एक नया वफादार वाइसचांसलर भी दे दिया गया, जिस पर पहले ही दलित छात्रों के साथ अन्याय के आरोप लग चुके थे.

वास्तव में रोहित की खुदकुशी के दस दिन बाद, इस पर अपनी पहली ही सार्वजनिक प्रतिक्रिया में खुद प्रधानमंत्री ने माना था कि यह महज आत्महत्या नहीं थी बल्कि रोहित को ‘आत्महत्या करने पर मजबूर किया गया था.’ मगर जल्द ही उन्होंने इसे महज एक जुमला बनाकर भुला दिया. और उनकी सरकार के अलग-अलग बाजू इसे एक मामूली आत्महत्या और शुद्ध रूप से आत्महत्या का मामला साबित करने में जुट गए. बार-बार यह याद दिलाया गया कि हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में ही पिछले कुछ वर्षो में आत्महत्या की यह दसवीं घटना थी.

पहले किसी आत्महत्या का इतना शोर क्यों नहीं नहीं मचाया गया? मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा गठित कथित न्यायिक जांच के जरिए कम-से-कम कागजी तौर पर तो इसे एक शुद्ध आत्महत्या बल्कि गैर-दलित की और वह भी नितांत निजी परेशानियों की वजह से आत्महत्या साबित भी किया जा चुका है. यह दूसरी बात है कि इसे कागजी और एक हद तक सोशल मीडिया की भी लड़ाई से आगे, आम जनता के बीच लेकर जाने की संघ परिवार की भी हिम्मत नहीं हुई है, फिर सत्ताधारी पार्टी की ऐसी हिम्मत होने का तो सवाल ही कहां उठता है? एक बात तय है कि सामाजिक  और राजनीतिक, दोनों स्तरों पर सत्ता में बैठी ताकतों की सारी कोशिशों के बावजूद, इस एक साल में रोहित को भुलाया नहीं जा सका है.

दूसरी ओर यह भी सच है कि रोहित की ‘संस्थागत हत्या’ पर उठे सारे विरोध और विक्षोभ के बावजूद, रोहित को देश के मौजूदा कानून के तहत भी न्याय नहीं दिलाया जा सका है. लेकिन अब यह अकेले रोहित के साथ न्याय का प्रश्न रहा भी नहीं है. रोहित की मौत ने आमतौर पर सामाजिक बराबरी और न्याय के सवालों को और खासतौर पर शिक्षा परिसरों में सामाजिक बराबरी और जनतांत्रिक वातावरण के सवालों को इतने गाढ़े रंग से रेखांकित कर दिया है कि, अब इन सवालों को अनदेखा नहीं किया जा सकता है. इसने सामाजिक न्याय की लड़ाई को, एक नये स्तर पर पहुंचा दिया है.

यहां आकर रोहित के लिए न्याय की लड़ाई ने शिक्षा परिसरों में सामाजिक अन्याय व भेदभाव के खिलाफ रोहित कानून बनवाने की जनतांत्रिक लड़ाई का ठोस रूप ले लिया है. बेशक, यह लड़ाई अभी शुरू ही हुई है. फिर भी यह इसका इशारा है कि रोहित का बलिदान बेकार नहीं जाएगा. बेशक, रोहित को न्याय नहीं मिल पाया, इसके लिए हम शर्मिदा हैं. पर इसका गर्व भी है कि नई ताकत और नये तेवर के साथ, सामाजिक न्याय की लड़ाई जारी है. 

राजेन्द्र शर्मा
लेखक


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