भारत-चीन : कैसे सधेगा चीन
विदेश सचिव एस.जयशंकर की हाल के वक्त में उलझे चल रहे भारत-चीन संबंधों के मद्देनजर आई हालिया टिप्पणी अगले कुछ अर्से तक विशेषज्ञ और मीडिया टिप्पणीकारों के बीच एक अहम संदर्भ बिंदु बनी रहेगी.
भारत-चीन : कैसे सधेगा चीन |
दिल्ली में आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के सालाना ‘रायसीना संवाद’ में अपने वक्तव्य के बाद सवाल-जवाब के दौर में विदेश सचिव ने काफी जाहिराना तौर पर कहा कि चीन अपनी भौगोलिक संप्रभुता को लेकर जितना संजीदा रहता है, उस लिहाज से उसे औरों की भी संवेदनशीलताओं को समझना चाहिएदूसरे देशों की भी अपनी भौगोलिक संप्रभुता को लेकर चिंताए हैं. जयशंकर ने बिना किसी लाग-लपेट के कहा कि चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा भारत के कश्मीर के उस हिस्से से निकलताहै जो पाकिस्तान के गैर-कानूनी कब्जे में है. न तो चीन ने इस बारे में भारत से कोई मशविरा किया था और न ही ऐसा लग रहा है कि चीन को भारत की चिंताओं की कोई परवाह है.’
जयशंकर की यह टिप्पणी इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है; क्योंकि एक दिन पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसी सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए कहा था कि क्षेत्रीय गलियारे संबंधित राष्ट्रों की संप्रभुता का सम्मान करे बिना सफल नहीं हो सकते. यह पहली दफा नहीं है, जब विदेश सचिव ने भारत-चीन संबंधों में आई हालिया अनिश्चितताओं को रेखांकित किया है. इससे पहले भी जयशंकर कई मर्तबा बोल चुके हैं कि हालांकि दोनों देश एक-दूसरे से गला-काट प्रतिस्पर्धा नहीं कर रहे हैं, पर उनके संबंध जटिल हैं, इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता.
विदेश सचिव ही नहीं, विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और प्रधानमंत्री मोदी खुद कई बार भारत की भौगोलिक संप्रभुता और चीन द्वारा मसूद अजहर के मामले में पाकिस्तान को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में दिए गए सरंक्षण के सवाल को विदेश मंत्री और राष्ट्राध्यक्ष स्तर पर उठा चुके हैं. इस संदर्भ में पहले प्रधानमंत्री और फिर विदेश सचिव के दो-टूक बयान गहरे मायने रखते हैं. ऐसा लगता है भारत सरकार ने फैसला कर लिया है कि चीन के साथ अच्छे आर्थिक-सांस्कृतिक संबंधों की खातिर देश की संप्रभुता के मामलों पर चीन के रवैये को अनदेखा नहीं किया जाएगा.
दरअसल, इस बदलाव की लंबी पृष्ठभूमि है. दोनों देश पिछले दशक की शुरुआत से अपने संबंध ‘सहयोग संघर्ष से महत्त्वपूर्ण और लाभकारी है’ और ‘दुनिया में दोनों देशों को एक साथ तरक्की करने की गुंजाइश मौजूद है’ की समझदारी से चला रहे थे. इन दो साझी समझदारियों के तहत दोनों देशों के ताल्लुकातों ने खासी तरक्की की. यह तरक्की व्यापार और नागरिक संबंधों में दिखाई दी. हालांकि, सीमा विवाद जैसा मूलभूत विवाद और अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय प्रभाव को लेकर अघोषित चिंताएं यथावत रहे पर नियंत्रण में रहे. इस दौर में भी सीमा में अतिक्रमण और घुसपैठ के पारस्परिक आरोपों के मामले, जम्मू-कश्मीर के भारतीय नागरिकों को चीन द्वारा ‘खुले वीसा’ देने के मुद्दे, अरुणाचल प्रदेश में भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह (2009) और दलाई लामा की यात्रा (2009), चीन द्वारा न्यूक्लीयर सप्लायर ग्रुप के भारत को छूट दिए जाने का विरोध करने के मामले आते रहे. परंतु विवाद एक सीमा के अंदर बने रहे.
पिछले तीन-चार सालों में दोनों देशों में राजनैतिक और विचारधारागत परिदृश्य बदला है. मोदी और जिनफिंग दोनों का नेतृत्व राष्ट्रवाद में विश्वास रखता हुआ दिखता है. मोदी सरकार शुरू से ‘वन चाइना पॉलिसी’ को समर्थन के बदले में ‘वन इंडिया’ के अपने विचार को चीन का समर्थन मांग रही है. दूसरी तरफ, भारत ने अमेरिका और जापान के साथ अपना पुराना सतर्क रवैया भी लगभग छोड़ दिया है. सुरक्षा परिषद और एनएसजी में सदस्यता की दावेदारी भी मोदी सरकार ने काफी शिद्दत से की है. वहीं, चीन जो कि क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय नेतृत्वमें साझा करने के सवाल पर (कम से कम एशिया के किसी राष्ट्र के साथ) काफी संवेदनशील रहा है, भारत के साथ कोई समझौता करता हुआ नहीं दिखाई दे रहा है. इस बीच चीन के लिए पाकिस्तान की परंपरागत महत्ता और भी बढ़ी दिखाई दे रही है.
अंतरराष्ट्रीय जेहाद से मुकाबले के सवाल पर, अरब सागर औरतेल और उर्जा स्रोत पश्चिम एशिया से सीधे जमीनी रास्ते की जरूरत के मद्देनजर और नये आर्थिक अवसरों के लिहाज से चीन के लिए पाकिस्तान की महत्ता और बढ़ती नजर आई है. चीन अपने सामरिक गुणा-भाग में साफ है कि उसके लिए पाकिस्तान के साथ सामरिक दोस्ती भारत के साथ विकासोन्मुखी दोस्ती से कहीं ज्यादा जरूरी है, इसलिए वह चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे पर भारत के विरोध को लेकर बेपरवाह है. मोदी सरकार के दृष्टिकोण से चीन का रवैया बिल्कुल नाजायजऔर गंभीर चिंता का विषय भी.
भारत चीन और पाकिस्तान के परमाणु और असैनिक सहयोग को बदली न जा सकने वाली हकीकत तो बहुत पहले ही मान चुका है और उस पर ज्यादा कुछ करने की गुंजाइश भी कभी नहीं रही है. परंतु भारत की और मोदी सरकार की भौगोलिक-सामरिक समझदारी में चीन की पाक-अधिकृत कश्मीर में उपस्थिति सामरिक और सैनिक-रणनैतिक लिहाज से राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए गंभीर और चिंता का विषय है. साथ ही, भारतीय राष्ट्र और राष्ट्रवाद की समझदारी के लिहाज से एकदम अस्वीकार्य है.
हालांकि, यहां ज्यादा अहम सवाल यह है कि अगर मोदी सरकार चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे पर अपने विरोध पर इतनी साफ है तो क्या उसके पास अपने विरोध को उसके तार्किक अंजाम तक ले जाने के लिए सोची-विचारी रणनीति है? चीन अंतरराष्ट्रीय मंचों पर नेतृत्वकारी भूमिका में है, जहां भारत एक सदस्य मात्र है. उसके साथ भारत की कश्मीर, पूर्वोत्तर भारत और अन्य हिस्सों में सुरक्षा के लिहाज से कमजोर अथवा संभावित कमजोर स्थिति है. इन सुरक्षा चिंताओं का दोहन करने के लिए चीन के पास पाकिस्तान नाम का मोहरा भी है. ऐसे में चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे को चुनौती देने और उसे भारत-चीन संबंधों की नई परिभाषा बनाने के लिए राष्ट्रीय तैयारी की जरूरत है.
(डॉ प्रशांत आईडीएसए के एसो. फेलो हैं. लेख में व्यक्त उनके विचार निजी हैं)
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