परत-दर-परत : गांधी को कैलेंडर में जगह चाहिए भी नहीं

Last Updated 15 Jan 2017 02:38:23 AM IST

मुझे पता नहीं था कि नरेन्द्र मोदी चरखे से सूत कातते हैं. मोरारजी देसाई, जो 1977 में भारत के प्रधानमंत्री बने, सूत कातते थे और यह बात जगजाहिर थी.


परत-दर-परत : गांधी को कैलेंडर में जगह चाहिए भी नहीं

खादी ग्रामोद्योग तब भी था, लेकिन उसके कैलेंडर पर उनकी तस्वीर कभी नहीं आई. बाद में एक प्रतीक के तौर पर भी खादी को याद नहीं रखा गया. 2017 में  पहली बार किसी प्रधानमंत्री ने चरखा चलाते हुए अपनी तस्वीर खिंचवाई है और खादी ग्रामोद्योग ने अपने कैलेंडर पर यह तसवीर गर्व के साथ लगाई है. इस राष्ट्रीय संस्था को मेरा शत-शत नमन. भले ही वह खादी और ग्रामोद्योग के लघु उत्पाद बेचती हो, पर वह अपने समय को पहचानती है. गांधी भी अपने समय को पहचानते थे और उससे संघर्ष करते थे. खादी आयोग भी अपने समय को पहचानता है और उसके सामने आत्मसमर्पण कर देता है. समय कितना बदल चुका है.

खादी का यह पतन स्वाभाविक है. स्वतंत्रता के बाद खादी अपने पांव पर नहीं खड़ी है, वह सरकार की सब्सिडी पर चल रही है. इसमें संदेह नहीं कि चरखा सिर्फ  कपड़ा बुनने का यंत्र नहीं था, यह गांधी के स्वराज अभियान का सब से उज्ज्वल प्रतीक था. अगर कोई स्वदेशी, आत्मनिर्भर और विकेंद्रित भारत बनना था, तो उसके केंद्र में चरखा ही हो सकता था. चरखे को कांग्रेस के झंडे में भी जगह मिली थी. स्वतंत्रता के बाद जैसे गांधी को भुला दिया गया, वैसे ही उनके चरखे को भी. गांधी की योजना में यह था कि धीरे-धीरे कपड़ा मिलें बंद हो जाएंगी और घर-घर में चरखा चलेगा, जिससे न केवल देश भर को कपड़ा मिलेगा, बल्कि करोड़ों लोगों को रोजगार भी मिलेगा.

लेकिन अर्थव्यवस्था के मामले में जवाहर लाल नेहरू लगभग उसी किस्म के आधुनिक थे, जैसे नरेन्द्र मोदी हैं. मोदी को भी नवीनतम मशीनें अच्छी लगती हैं और नेहरू को भी आधुनिक उद्योग पसंद थे. एक जमाने में भारत यूरोप को खींच रहा था, अब यूरोप भारत को खींच रहा है. इसलिए खादी और ग्रामोद्योग के जरिए भारत की अर्थव्यवस्था को नया जीवन देने का स्वप्न कूड़ेदान में फेंक दिया गया और यूरोपीय किस्म के उद्योगीकरण का दौर शुरू हुआ, जिसकी परिणति हम आज के भारत में देख रहे हैं, जिसमें देश की बहुसंख्य आबादी का कोई भविष्य नहीं है. लेकिन थोड़े-से समय में ही खादी ने भारत के जनजीवन में इतनी जगह बना ली थी कि उसे तत्काल अपदस्थ करना संभव नहीं था. इसी का नतीजा था खादी ग्रामोद्योग की स्थापना, जिससे उस समय भी लाखों लोगों को रोजगार मिला हुआ था.

गांधी जी की खादी लोकशाही खादी थी, यह सरकारी खादी थी. लोकशाही खादी में सब्सिडी के लिए कोई जगह नहीं थी, सरकारी खादी सब्सिडी के बिना भहरा कर गिर पड़ती. लोकशाही खादी आत्मनिर्भर थी तो स्वाभिमानी भी थी. सरकारी खादी सब्सिडी पर टिकी हुई थी, इसलिए गुलाम खादी थी. वह वर्तमान सभ्यता का विकल्प ढूंढ़ रही थी, यह वर्तमान सभ्यता का पूरक है. चूंकि उद्योगीकरण के केंद्र में बड़े कल-कारखाने आ गए, इसलिए बचे रहने के बावजूद खादी का तेज छिन गया. इसलिए यह खादी बचे या नहीं बचे, इसका कोई महत्व नहीं है. चरखे का समय तब लौटेगा जब गांधी का समय लौटेगा. फिलहाल तो खादी का पाखंड खत्म कर देना चाहिए. यह वैसा ही पाखंड है जैसा राजघाट का प्रदशर्न या रिजर्व बैंक द्ववारा छापे जाने वाले नोटों पर गांघी का चित्र. यह चित्र चीख-चीख कर कहता है कि गांधी को रु पए की कैद से निकालो.

एक बात के लिए मैं मोदी की तारीफ कर सकता हूं. एक अवसर पर उन्होंने देशवासियों से अपील की थी कि वे  खादी की कम से कम एक चीज का उपयोग जरूर करें कुछ न हो, तो रूमाल का ही. यह एक हालांकि  प्रतीकात्मक, परंतु महत्वपूर्ण आह्वान था. लेकिन लगता है कि प्रधानमंत्री की याददाश्त में कुछ गड़बड़ी है. वे एक काम शुरू करते हैं, फिर जल्द ही उसे भूल जाते हैं और दूसरे काम में लग जाते हैं. स्वच्छता अभियान को कामयाबी मिलती, तो भारत एक साफ-सुथरा देश बन सकता था. लेकिन इस अभियान को पतंग की तरह उड़ता छोड़ कर वे दूसरे कामों में लग गए. इसलिए एक बार आह्वान करने के बाद वे खादी को भी भुला बैठे, तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है. यह जरूर आश्चर्य  की बात है कि कैलेंडर में ही सही, चरखा कातते हुए वे आज हमारे सामने मौजूद हैं.

गांधी को कैलेंडर में जगह नहीं चाहिए, खासकर सरकारी कैलेंडर में, जिसका प्रारूप नौकरशाही द्वारा तैयार किया जाता है, जो अकसर चापलूसी संस्कृति में डूबी हुई होती है. वह अपने अच्छे कामों के द्वारा नहीं, अपनी चापलूसी से अपने उच्चतर अधिकारियों को प्रसन्न करना चाहती है. उसका काम जनता की आवश्यकताओं की पूर्ति करना नहीं, बल्कि अपनी नौकरी बचाना और प्रमोशन पाना है. जिस अफसर ने तय किया कि इस साल गांधी की जगह मोदी की तस्वीर छापी जाएगी, उसकी नजर में खादी का प्रमोशन नहीं, अपना प्रमोशन था.  अब समय आ गया है कि सरकारी कागजों पर, सरकारी इमारतों के प्रांगण में, सरकारी पाकरे में किसी नेता की तसवीर या मूर्ति लगाई जाए या नहीं, इस पर एक सर्वसम्मत निर्णय हो. मेरा खयाल है बुतपरस्ती में हम बहुत आगे निकल आए हैं. यह देश वैसे ही भक्ति-प्रधान रहा है. हमारे पास पूजने के लिए पहले से ही हजारों देवता और मूर्तियां हैं. इनकी संख्या भी कम होनी चाहिए. लेकिन सार्वजनिक स्थानों पर जीवित लोगों की मूर्तियां लगाना तो अश्लीलता की पराकाष्ठा है. इससे तुरंत छुटकारा पाने की जरूरत है. बुतपरस्ती मनुष्य के स्वभाव में है. यह आदत शायद जाने से रही, पर इतनी मर्यादा तो बनाई ही जा सकती है कि सरकारी कामकाज में किसी व्यक्ति की तसवीर या मूर्ति का प्रयोग न हो.

राजकिशोर
लेखक


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