कमजोर अर्थव्यवस्था
कारोना संकट को लेकर अर्थव्यवस्था की चिंता आज न सिर्फ पहले से ज्यादा है बल्कि इस कारण इस अभूतपूर्व महामारी से निपटने के सरकारों की तैयारी पर भी असर पड़ रहा है।
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कोरोना संघर्ष के बीच एक ऐसे मोड़ पर जब विा्व बैंक भी कह रहा है कोरोना वायरस के कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था में दूसरे विश्व युद्ध के बाद सबसे गहरी मंदी आएगी, पूरी दुनिया में इस महामारी से निपटने की अब तक की नीति और प्राथमिकताएं तेजी से बदलती दिख रही हैं। आलम यह है कि जर्मनी से लेकर भारत तक लॉकडाउन के ताले इस दबाव में खोले जा रहे हैं कि व्यापारिक और कारोबारी गतिविधियां अगर और ज्यादा दिनों तक स्थगित रहीं तो आगे इन्हें संभाल पाना आसान नहीं होगा।
भारत में भी हम देख चुके हैं कि संक्रमण फैलने के जोखिम के बावजूद राज्य सरकारों ने शराब बिक्री पर से पाबंदी उठाने के लिए कितनी तत्परता दिखाई? यही वजह है कि 75 दिनों के बाद जब अनलॉक-1 शुरू हुआ है तो केंद्र से लेकर राज्य सरकारों की प्राथमिकता का कंपास संक्रमण फैलने से रोकने और संक्रमितों के इलाज की व्यवस्था से घूमकर बाजार खोलने और कारोबारी स्थिति सामान्य करने पर आकर कहीं-न-कहीं स्थिर हो गया है।
सरकारें कहीं-न-कहीं इस बात को छिपाने-दबाने में भी जुटी हैं कि लॉकडाउन उठाने की कवायद शुरू होते ही कोरोना संक्रमितों और इससे मरने वालों के आंकड़े तेजी से बढ़ने शुरू हो गए हैं। यही नहीं, जो जिला प्रशासन कल तक संक्रमित इलाकों और लोगों पर नजर रखने में पसीना बहा रहा था, वह अब दुकानें खुलें और बाकी कारोबारी हालात सामान्य हो, इसके लिए दौड़-भाग कर रहा है। बहरहाल, ऐसे हालात में जो दो बातें उभरकर सामने आई हैं, उनमें पहला यह है कि सरकारों ने मान लिया है कि कोरोना सेहत से ज्यादा अर्थव्यवस्था के लिए खतरा है और इससे निपटने के लिए कदम उठाने ही होंगे।
दूसरी अहम बात यह कि मामला स्वास्थ्य का हो या अर्थव्यवस्था का, कम-से-कम भारत में सरकार की तरफ से ऐसी कोई दूरदर्शिता नहीं दिखाई दे रही है। अलबत्ता इस बारे में कोई सख्त राय बनाने से पहले यह भी ध्यान में रखना जरूरी है कि कोरोना संकट हर लिहाज से बड़ा और अभूतपूर्व है। इस तरह के संकट से निपटने का सरकारों के पास पहले से कोई अनुभव नहीं रहा है। लिहाजा असफलताओं और अनुभव के बीच से ही आगे के लिए टिकाऊ और सही समझ बनेगी।
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