बिहार की चुनावी बयार में खिलेगा कमल या बुझेगी लालटेन ?
पीएम मोदी ने सार्वजनिक रूप से कह दिया है कि इस बार लोकसभा चुनाव में एनडीए 400 से ज्यादा सीटें जीतेगा। जबकि खुद बीजेपी 370 सीटें जीतने जा रही है।
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मोदी की उस घोषणा के बाद देश भर के राजनैतिक जानकार इस उधेड़बुन में लगे हुए हैं कि बीजेपी को इतनी सीटें कहाँ से और कैसे मिलेगीं। जिस तरह से बिहार में एक बार फिर से नीतीश कुमार एनडीए के पाले में चले गए हैं उससे बिहार का राजनैतिक समीकरण गड़बड़ा गया है। चर्चा इस बात की हो रही है कि क्या इस बार एनडीए 2019 की स्थिति को बरकरार रख पायेगा? क्या नीतीश के एनडीए में वापस आ जाने के बाद बीजेपी नेतृत्व वाला एनडीए बिहार की 39 सीटों को एक बार फिर से जीत लेगा। क्योंकि बिहार की जनता इस चुनाव में नीतीश के बार-बार बदलने वाले मिजाज को जरूर ध्यान में रखेगी। हालांकि तेजस्वी यादव ने भी दावा किया है कि वो मोदी के रथ को बिहार में रोक देंगे। मतलब वो इस बार बिहार में बीजेपी को 2019 के प्रदर्शन को दोहराने नहीं देंगे।
यहां एक बात बता दें कि बिहार में लोकसभा की 40 सीटें हैं। 2919 में एनडीए के हिस्से में 39 सीटें आयीं थीं जबकि एक सीट कांग्रेस को मिली थी। खैर सबके अपने- अपने दावे हैं। चुनावों के बाद ही सबके दावों की हकीकत का पता चलेगा, लेकिन यह तय है कि इस बार बिहार में सबके दावे गलत साबित होने जा रहे हैं। सबसे पहले बात करते हैं राजद और तेजस्वी यादव की। नीतीश कुमार के साथ दूसरी बार सरकार बनाने के बाद तेजस्वी यादव ने निश्चित तौर पर अपने आपको संवारा है , अपने आपको निखारा है। उनकी राजनैतिक परिपक्वता में बढ़ोतरी हुई है। पिछले कुछ महीनों के अपने कार्यकाल में वो बिहार की जनता को एक सन्देश देने में सफल हुए हैं कि अब वो और उनकी पार्टी बदल चुकी है।
बिहार की जनता भी उनका समर्थन करती हुई दिखाई दे रही है, लेकिन सवाल यह है कि उनकी बदली हुई छवि का फायदा उन्हें और उनकी पार्टी को लोकसभा के चुनाव में मिलेगा या नहीं ? क्या बिहार की जनता मोदी की तुलना में उन्हें ज्यादा भाव या ज्यादा समर्थन देती हुई दिखाई देगी ? इस समय देश में दो ही धड़े काम कर रहे हैं। एक धड़ा मोदी के साथ खड़ा है जबकि दुसरा विपक्ष के साथ। निश्चित तौर पर विपक्षी खेमे को कांग्रेस लीड कर रही है। यानि देश की जनता को जब यह एहसास हो जाएगा कि कांग्रेस, बीजेपी का मुकाबला करती हुई दिख रही है, तभी देश के किसी भी राज्य की जनता उस राज्य की स्थानीय पार्टी के समर्थन में खड़ी होती हुई दिखाई देगी। बीजेपी लाख दावे करे कि इस बार वो 370 से ज्यादा सीटें जीतने जा रही है, लेकिन हकीकत कुछ और ही है। जिस तरीके से बीजेपी, कुछ अन्य पार्टी के नेताओं को अपने साथ ला रही है, उससे एक बात तो साफ़ है कि उनकी भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। वह भी डरी हुई है।
मोदी भले ही आज एक चेहरा बन चुके हों लेकिन उन्हें भी सहारे की जरुरत है। इसीलिए उन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को अपने पाले में कर लिया, जबकि अमित शाह समेत बीजेपी के कई बड़े नेताओं ने खुलेआम कह दिया था कि नीतीश के लिए बीजेपी के दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो चुके हैं। यही स्थिति कमोबेश कई राज्यों में देखने को मिल चुकी है और चुनाव से पहले और भी बहुत कुछ देखने को मिलेंगे। बीजेपी का आई टी सेल पूरे देश में मोदी के लिए एक माहौल बना चूका है। उनका आई टी सेल यह बताने में कामयाब हो चूका है की मोदी और बीजेपी का कोई विकल्प नहीं है। बीजेपी का आई टी सेल यह भी बताने में कामयाब हो चूका है कि आज देश के हर वोटर की जुबां पर मोदी का ही नाम है। जबकि हकीकत में ऐसा है नहीं है। अगर मोदी के पक्ष में माहौल बन चुका है तो कुछ ऐसे नेताओं को बीजेपी, अपने समर्थन में खड़ा नहीं करती जिन पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं। देश का एक धड़ा आज शांत है , वो कुछ बोल नहीं रहा है।
बीजेपी इस समय उन्ही शांत वोटरों से डरी हुई है। क्योंकि शांत पड़े हुए उन वोटरों की संख्या का उन्हें अंदाजा नहीं है। यही शांत वोटर इस बार चुनाव में गुल खिलाएंगे। बिहार के इन्ही शांत वोटरों को तेजस्वी साधना चाहते हैं। कुछ हद तक वो उन्हें साध भी चुके हैं। लेकिन तेजस्वी को पता है कि सिर्फ साधने से काम नहीं चलने वाला है। उनकी वोटें भी चाहिए, और ऐसा तभी संभव होगा जब कांग्रेस मजबूती से चुनाव लड़ेगी। अभी कुछ दिन पहले जब राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा बिहार में पहुंची तो राहुल गांधी तेजस्वी के साथ जीप में बैठे थे। उस जीप को तेजस्वी यादव ड्राईव कर रहे थे। इसका सीधा मतलब यह हुआ कि राहुल गाँधी ने बिहार की कमान तेजस्वी के हाथों में दे दी है। यानी महागठबंधन की गाड़ी को तेजस्वी यादव को ही चलाना है। बिहार में महागठबंधन की गाडी चल चुकी है। उस गाड़ी में कुछ जातीय समीकरण रूपी वोटरों को बिठाने की तैयारी शुरू हो चुकी है।
बिहार में आज भी जातीय समीकरण कुछ हद तक काम करता है। तेजस्वी यादव ने अपनी छवि भले ही सुधार ली हो लेकिन वहां की जातीय समीकरण को अपने पाले में बनाए रखने की चुनौती उनके सामने जरूर बनी रहेगी क्योंकि 2019 के लोकसभा चुनाव में यह जातीय समीकरण उनके साथ था बावजूद इसके उन्हें एक भी सीट नहीं मिल पायी थी।इस बार का शांत वोटर चुनाव में बहुत बड़ा फैक्टर साबित होने जा रहा है। पहली बार बिहार की चुनावी बयार कुछ अलग तरीके से बहती हुई दिखाई दे रही है। इस बार देखना बड़ा दिलचस्प रहेगा कि यह चुनावी बयार किसको शीतल करती है और किसे उड़ा ले जाती है। बहरहाल चिंताएं दोनों तरफ बराबर हैं।
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