भक्ति
महात्मा सत्यधृति के मुख से भक्त विमल तीर्थ के अनुभव सुनकर सभी भावलीन हो गए।
![]() श्रीराम शर्मा आचार्य |
भावनाएं-भावनाओं को छूती हैं, इनके स्पर्श से अस्तित्व और व्यक्तित्व के केंद्र में एक रहस्यमय हिलोर उठती है, जो समूचे व्यक्तित्व को स्पन्दित करती चली जाती है। भक्ति मंत्र के द्रष्टा ऋषि नारद भक्ति तत्त्व के परम अनुभवी और मर्मज्ञ थे। वे जानते थे कि भक्ति-भावनाओं का परिमार्जन-परिष्कार और रूपांतरण करने में समर्थ है। बस, आवश्यकता इसके सम्यक प्रयोग की है। जिसने भी जब यह प्रयोग जहां कहीं भी किया, उसे सफलता अवश्य मिली।
इसमें कहीं किसी तरह की विकलता, असफलता की कोई गुंजाइश ही नहीं। देवर्षि नारद अपनी लय में सोचे जा रहे थे। अन्य सभी भी अपनी विचार विथियों में भ्रमण कर रहे थे। बाहर सब ओर मौन छाया था। पर्वत शिखर, उत्तुंग वृक्ष, औषधीय वनस्पत्तियां, यहां तक कि वन्य पशु सभी शांत और स्थिर थे। कहीं से कोई स्वर नहीं था। ऐसा लग रहा था कि सारे रव, नीरव में समाहित हो गए हैं।
काफी देर तक ऐसा ही बना रहा। पल-क्षण बीतते गए परंतु भक्ति की भाव समाधि यथावत बनी रही। लेकिन तभी अब तक स्तम्भित रही वायु मंद गति से बह चली और धीरे-धीरे उसमें हिमपक्षियों के स्वर घुलने लगे। थोड़ी देर बाद हिमालयी वन्य पशुओं ने भी उसमें अपना रव घोला। वातावरण में ऐसी चैतन्यता अचानक उभरी, जैसे कि समूची प्रकृति अपनी समाधिलीनता त्याग कर अपने बाह्य जगत के कर्त्तव्यों के प्रति सहज और सचेष्ट हो गई हो।
इस नई स्थिति को अपने अनुभव में समेटते हुए महर्षि पुलह मुस्कुरा उठे। उनकी यह मुस्कुराहट ब्रह्मर्षि विामित्र के मन को बेध गई। उन्होंने बड़े मंद स्वर में ऋषि पुलह से पूछा-‘महर्षि अचानक आपकी इस मुस्कुराहट का कदाचित कोई प्रयोजन तो नहीं?’ उत्तर में ऋषि पुलह ने पुन: अपनी उसी मुस्कान में स्वरों को घोलते हुए कहा-‘लगता है कि हम सभी को मौन देखकर स्वयं प्रकृति मुखर हो उठी है।’ महर्षि पुलह के इस अटपटे उत्तर को सुनकर ऋषि विामित्र भी मुस्कुराए बिना नहीं रहे। इन दोनों ऋषियों की मुस्कान ने वातावरण को और भी चैतन्य बना दिया। और देवर्षि नारद के साथ अन्य सब अपनी विचार वीथियों से बाहर निकल कर जीवन की सामान्य सतह पर आ गए।
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