परोपकार
मैंने प्यार दिया पर बदला मुझे क्या मिला?’ ऐसे विचार करने में उतावली न कीजिए।
श्रीराम शर्मा आचार्य |
बादलों को देखिए, सारे संसार पर जल बरसाते फिरते हैं, किसने उनके अहसान का बदला चुका दिया? बड़े-बड़े भूमि खंडों का सिंचन करके उनमें हरियाली उपजाने वाली नदियों के परिश्रम की कीमत कौन देता है? हम पृथ्वी की छाती पर जन्म भर लदे रहते हैं, और उसे मल-मूत्र से गंदी करते रहते हैं, किसने उसका मुआवजा अदा किया है। वृक्षों से फल, छाया, लकड़ी पाते हैं पर उन्हें क्या कीमत देते हैं? परोपकार स्वयं में बदला है। जब आप उपकार करने का अनुभव स्वयं करेंगे तो देखेंगे कि ईश्वरीय वरदान की तरह यह दिव्य गुण स्वयं ही कितना शांतिदायक है, हृदय को कितनी महानता प्रदान करता है। उपकारी जानता है, ‘मेरे कार्यों से जितना लाभ दूसरों का होता है उससे कई गुना स्वयं मेरा होता है।’
ज्ञानवान पुरु ष जो कमाते हैं, दूसरों को बांट देते हैं, सोचते हैं कि प्रकृति जब जीवन वस्तु मुफ्त दे रही है, तो अपनी फालतू चीजें दूसरों को देने में कंजूसी क्यों करें? बुरे दिनों और विपत्ति की घड़ियों में भी परोपकार के दिव्य गुण का परित्याग मत कीजिए। जब आप किसी को भौतिक पदार्थ देने में असमर्थ हों तो भी सद्भावनाएं-शुभकामनाएं देते रहिए। नि:स्वार्थ भावना से जीवन व्यतीत करने वाले के लिए संसार में निरु त्साह, पश्चाताप और दु:ख की कोई बात नहीं है। जरा सी बात के आवेश में लड़ने-मरने पर उतारू मत हूजिये वरन विरोधियों पर दया-प्रेम की वष्रा करते रहिए। सद्भावना से दिव्य-दृष्टि मिलती है। जिसके हृदय में समस्त प्राणियों के प्रति सद्भावना भरी है, यथार्थ में वही दिव्य ज्ञान का अधिकारी है।
मनुष्यों में देवता वह है, जो पवित्र है, नि:स्वार्थ, प्रेमी, त्याग भावी है। शारीरिक स्वाथरे का परित्याग करने के उपरांत जो संतोष प्राप्त होता है, वह चक्रवर्ती राजा हो जाने के सुख से भी हजारों गुना अधिक है। इसलिए स्वार्थ त्यागने का अभ्यास आरंभ कीजिए। ज्ञान द्वारा पाशविक कंजूस वृत्ति को काबू में लाने का प्रयत्न करिए। तुच्छ स्वाथरे के गुलाम बनने से इंकार कर दीजिए। नम्रता, भलमनसाहत, क्षमा, दया, प्रेम और त्याग भावना को धारण करने से हृदय में शात शांति का आविर्भाव होता है। स्वार्थरहित प्रेम के महान नियम में अपने को केंद्रस्थ करना मानो संतोष, शीतलता, विश्राम और ईश्वर को प्राप्त करने के मार्ग पर पदार्पण करना है।
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