कर्म मुक्ति

Last Updated 03 Dec 2021 03:05:24 AM IST

हमारी जिंदगी में दो तरह के कर्म हैं। एक कर्म तो वह है जो हम अभी करते हैं, कल कुछ-कुछ पाने की आशा में। ऐसा कर्म भविष्य की तरफ से ‘धक्का’ है, खींचना है।


आचार्य रजनीश ओशो

भविष्य खींच रहा है लगाम की तरह। जैसे एक गाय को कोई गले में रस्सी बांध खींचे लिये जा रहा है, ऐसा भविष्य हमारे गले में रस्सियां डालकर हमें खींचे लिये जा रहा है। यह मिलेगा, इसलिए हम यह कर रहे हैं। मिलेगा भविष्य में, कर अभी रहे हैं। पशु का मतलब ही इतना है कि जो भविष्य से बंधा है और जिसकी लगाम भविष्य के हाथों में है और जो खिंचा जा रहा है।

जो रोज आज इसलिए जीता है कि कल कुछ होगा, कल भी इसीलिए जिएगा कि परसों कुछ होगा। यह ‘भविष्य उन्मुख रहने वाले’ है, वह फलासक्ति का अर्थ है। भविष्य-केंद्रित जीवन। एक ऐसा कर्म भी है, जो भविष्य से खिंचाव की तरह नहीं निकलता, बल्कि ‘स्वाभाविक’ है और झरने की तरह हमारे भीतर से फूटता है।

जो हम हैं, उससे निकलता है। जो हम होंगे, उससे नहीं। रास्ते पर आप जा रहे हैं, किसी आदमी का का छाता गिर गया है, आपने उठाया और छाता दे दिया। न तो छाता देते वक्त यह खयाल आया कि कोई ‘पत्रकार’ आसपास है या नहीं; न छाता देते वक्त यह खयाल आया कि यह आदमी धन्यवाद देगा कि नहीं; तो यह कर्म फलासक्तिरहित हुआ।

यह आपसे निकला सहज, लेकिन समझें कि उस आदमी ने आपको धन्यवाद नहीं दिया, दबाया छाता और चल दिया। और अगर मन में विषाद की जरा-सी भी रेखा आई, तो आपको फलाकांक्षा का पता नहीं था, लेकिन अचेतन में फलाकांक्षा प्रतीक्षा कर रही थी।

आप सचेतन नहीं थे कि इसके धन्यवाद देने के लिए मैं छाता उठाकर दे रहा हूं, लेकिन अचेतन मन मांग ही रहा था कि धन्यवाद दो। उसने धन्यवाद नहीं दिया, उसने छाता दबाया और चल दिया। तो आप उससे कहेंगे कि यह कैसा कृतघ्न, कैसा अकृतज्ञ आदमी है!

मैंने छाता उठाकर दिया और धन्यवाद भी नहीं! तो भी फलाकांक्षा हो गई। अगर कृत्य अपने में पूरा है, ‘कुल’, अपने से बाहर उसकी कोई मांग ही नहीं है, तो फलाकांक्षारहित हो जाता है। कोई भी कृत्य जो अपने में पूरा है, ‘गोले’ की तरह है; वृत्त की तरह अपने को घेरता है और पूर्ण हो जाता है और अपने से बाहर की कोई अपेक्षा ही उसमें नहीं है।



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