लोकसेवा
लोकसेवा के लिए मन में उमंग और उत्साह उठने के बाद तत्काल उस ओर प्रवृत्त नहीं हुआ जा सकता। इसके लिए अपना दृष्टिकोण बदलना पड़ता है।
श्रीराम शर्मा आचार्य |
मनुष्य के पास थोड़ी-सी शक्तियां हैं और छोटा सा जीवन है, उसे लौकिक प्रयोजनों में लगाने का निश्चय स्वयं करना पड़ता है। लोकसेवी अपनी शक्तियों का नियोजन जनसेवा के लिए परमार्थ कार्यों के लिए करता है। अत: उसे अपनी आवश्यकताओं और सुविधाओं के लिए दूसरे से भिन्न दृष्टिकोण अपनाना चाहिए और अपना जीवन स्तर तथा साधनों के उपयोग की रीति-नीति भिन्न रखनी चाहिए। प्राय: दृष्टिकोण न बदलने के कारण ही सेवाधर्म कठिन जान पड़ता है, और उसका निर्वाह नहीं हो पाता। जैसे आवश्यकताओं को ही लें। बहुत से व्यक्ति सोचते हैं कि संपन्नता और समृद्धि ही जीवन का लक्ष्य है और उन्हें प्राप्त करने में जो सफल हो गया, वही धन्य है। लोकसेवी का दृष्टिकोण इससे अलग होना चाहिए।
उसे साधनों की विपुलता को नहीं, व्यक्तित्व की श्रेष्ठता को बड़प्पन का आधार मानना चाहिए। ऐसा न हो सका, तो लोकसेवी उन्हीं गोरखधंधों में उलझ कर रह जाएगा, जिसमें कि दूसरे लोग उलझ जाते हैं। लोकसेवी को जन सामान्य से भिन्न रीति-नीति अपनानी चाहिए। निर्वाह के लिए कम से कम आवश्यकताएं रखने का दृष्टिकोण विकसित करना चाहिए। समझा जाता है कि हम जितनी शान-शौकत और मौज-मजे के विलासितापूर्ण साधनों का उपयोग करेंगे, उतना ही बड़प्पन मिलेगा। वस्तुत: यह सोचना गलत है। इसके लिए अपने बड़प्पन की परिभाषा बदलनी चाहिए। बड़प्पन धन-संपत्ति या शान-शौकत से नहीं, उत्कृष्ट और आदर्श व्यक्तित्व तथा महान बनाने वाले सद्गुणों से मिलता है।
प्राचीनकाल में लोकसेवी परंपरा के अंतर्गत जितने भी संत, ऋषि, विचारक और महापुरुष हुए उन्होंने यही दृष्टिकोण अपनाया। ऋषियों के रहन-सहन की सादगी इतनी सुविख्यात है कि उस संबंध में कुछ भी कहना पुनरुक्ति ही कहलाएगा। चाणक्य ने भारत को राष्ट्र के रूप में संगठित करने के लिए चंद्रगुप्त का मार्गदर्शन किया और हमेशा एक कुटिया में रहे। चाहते तो अपने लिए प्रचुर साधन-सुविधाएं जुटा सकते थे, सुविधा संपन्न जीवन व्यतीत कर सकते थे। लेकिन लोकसेवियों की आदर्श परंपरा की रक्षा के लिए उन्होंने न्यूनतम आवश्यकता की मर्यादा का ही पालन किया। वर्तमान समय में इस परंपरा को पुनर्जीवित करने की महती आवश्यकता है।
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