आत्म-कल्याण
आत्म-कल्याण का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण और आत्म-विकास की प्रक्रिया को अपनाना आवश्यक है।
![]() श्रीराम शर्मा आचार्य |
जप, तप, ध्यान-भजन की सारी आध्यात्मिक विधि व्यवस्था इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए है। पर यह उद्देश्य जिन साधनों से प्राप्त होता है वह शरीर, मन और समाज हैं। इनके सुव्यवस्थित रहे बिना आत्म-कल्याण का लक्ष्य प्राप्त होना तो दूर जीवित रहने के दिन कटने भी कठिन हो जाते है।
साधना का प्रथम सोपान, बाह्य-जीवन को सुव्यवस्थित बनाते हुए आत्मिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त करना है। इस प्रथम कक्षा को उत्तीर्ण किये बिना जो लोग छलांग मारकर ऊपर चोटी पर चढ़ना चाहते हैं, सीधे प्रत्याहार, समाधि, चक्र-वेधन, कुण्डलिनी जागरण की बात सोचते हैं उन्हें असफलता ही मिलती है। आत्मिक पूर्णता का लक्ष्य मलीन और दूषित साधनों से कैसे प्राप्त किया जा सकेगा? स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन और सभ्य समाज के सहारे ही आत्मा अपने लक्ष की ओर गतिवान होती है। इसलिए प्रगति की इस पहली मंजिल को हमें सावधानी से पूरा करना चाहिए।
इसके बाद अगली मंजिलें बहुत ही सरल हो जाती हैं। प्रथम कक्षा कमजोर रहे तो आगे का काम कैसे चलेगा? जिसके पैर ही कमजोर हैं उससे दौड़ कैसे लगाई जा सकेगी? जिसने प्राथमिक पाठशाला के स्वर, व्यंजन, गिनती, पहाड़े ही ठीक तरह याद नहीं किए हैं, उसके लिए एम.ए. की उत्तीर्णता का स्वप्न, काल्पनिक ही रह जाएगा। योग-साधना में पहले यम-नियमों की साधना करनी पड़ती है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह-यम और शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान-नियम इन दसों बातों पर बारीकी से ध्यान दिया जाय तो स्पष्ट हो जाता है कि इनका उद्देश्य शारीरिक, मानसिक और सामाजिक सुव्यवस्था ही है।
ब्रह्मचर्य, शौच और तप का कार्यक्रम शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से रखा गया है। इन्द्रियों का संयम ब्रह्मचर्य के अंतर्गत आता है। शरीर, वस्त्र, घर एवं उपकरणों की स्वच्छता का तात्पर्य शौच है। तप का अर्थ है शारीरिक और मानसिक श्रम-आसन, प्राणायाम, व्यायाम, तितिक्षा, कष्ट-सहिष्णुता आदि। इन्हीं या ऐसे ही सुणों से स्वास्थ्य की रक्षा होती है। सत्य, सन्तोष, स्वाध्याय और ईश्वर उपासना यह चार आधार मानसिक स्वच्छता के लिए हैं।
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