वसीयत व विरासत
बच्चे बड़ों से कुछ चाहते हैं, सो ठीक है, पर बड़े बदले में कुछ न चाहते हों ऐसी बात भी नहीं। नियत स्थान पर मल-मूत्र त्यागने, शिष्टाचार समझने, हंसने-हंसाने, वस्तुएं न बिखरने देने, पढ़ने जाने जैसी अपेक्षाएं वे भी करते हैं।
श्रीराम शर्मा आचार्य |
जितना सम्भव है, उतना तो उन्हें भी करना चाहिए। हमारी अपेक्षाएं भी ऐसी ही हैं। गोवर्धन उठाने वाले ने अपने अनगढ़ ग्वाल बालों के सहारे ही गोवर्धन उठाकर दिखाया था। हनुमान की बात किसी ने नहीं सुनी तो अपने सहचर रीछ-वानरों को ही समेट लाए। नव-निर्माण के कंधे पर लदे उत्तरदायित्व को वहन करने में हम अकेले ही समर्थ नहीं हो सकते थे। यह मिल-जुलकर सम्पन्न हो सकने वाला कार्य था।
सो समझदारों में से कोई हाथ न लगा तो अपने इसी बाल-परिवार को लेकर जुट पड़े और जो कुछ, जितना-कुछ सम्भव हो सका करते रहे। अब तक की प्रगति का यही सार संक्षेप है। बात अगले दिनों की आती है। हमें अपने बच्चों के लिए क्या करना चाहिए। इस कर्तव्य उत्तरदायित्व का सदा ध्यान रहा है और जब तक चेतना का अस्तित्व है, उसका स्मरण दिलाने योग्य बात एक ही है कि हमारी आकांक्षा और आवश्यकता को भुला न दिया जाए।
समय विकट है। इसमें प्रत्येक परिजन का समयदान और अंशदान हमें चाहिए। जितना मिलता रहा है, उससे भी अधिक मात्रा में, क्योंकि जो करना है, उसके लिए तत्काल कदम उठाने हैं। सो भी बड़े कामों के लिए बड़े-बड़े लोग चाहिए, बड़े साधन भी। हमारे परिवार का हर व्यक्ति बड़ा है। छोटेपन का तो उसने मुखौटा भर पहन रखा है। उतारने भर की देर है कि उसका असली चेहरा दृष्टिगोचर होगा। भेड़ों के समूह में पले सिंह शावक की कथा अपने प्रज्ञा परिजनों में से प्रत्येक के ऊपर लागू होती है या हो सकती है।
हमारे मार्गदर्शक ने एक पल में क्षुद्रता झटक कर महानता का परिधान पहना दिया था। इस कायाकल्प में मात्र इतना ही हुआ था कि लोभ, मोह की कीचड़ से उबरना पड़ा। जिस-तिस के सत्परामशरे आग्रहों की उपेक्षा करनी पड़ी और आत्मा-परमात्मा के संयुक्त निर्णय को शिरोधार्य करने का साहस जुटाना पड़ा है। एकाकी चलने का आत्मविश्वास जागा और आदशरे को भगवान मानकर कदम बढ़े। इसके बाद एकाकी नहीं रहना पड़ा और न साधनहीन, उपेक्षित स्थिति का कभी आभास हुआ। सत्य का अवलम्बन अपनाने भर की देर थी कि असत्य का कुहासा अनायास ही हटता चला गया।
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